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________________ 30 mr ३२८ ३३३ ३३९ ३४२ ३४६ ३४९-३८८ ३४९ ३५० ३५१ ३५४ ३५६ ३५९ ३५९ जैनतत्त्वमीमासा १८. प्रयोजनके अनुसार नयोंकी प्ररूपणा १९ असद्भूत व्यवहारनय २०. अध्यात्मनयोंकी सार्थकता २२. उपसंहार २३. उपदेश देनेकी पद्धति ११ अनेकान्त-स्यावाद मोमासा १. उपोद्धात २. भेद विज्ञानकी कलाका निर्देश ३ तर्कपूर्ण शैलीमे व्यवहारका निषेध ४ अनेकान्तका स्वरूपनिर्देश ५ चार युगलोंकी अपेक्षा अनेकान्तकी सिद्धि ६ स्याद्वाद और अनेकान्त ७ सकलादेशकी अपेक्षा ऊहापोह ८. सप्तभगीका म्वरूप और उसमे प्रत्येक भंगकी सार्थकता ८ प्रत्येक भगमे अस्ति आदि पदोंकी सार्थकता ९ कालादि आठकी अपेक्षा विशेष ग्वलासा १०. पूर्वोक्त विषयका सुबोध शैलीमे खुलासा ११ उदाहरण द्वारा उक्त विषयका स्पष्टीकरण १२. जिनागममें मूल दो नयोंका ही उपदेश है १३. स्यात् पदकी उपयोगिता १४ अनेकान्त कथचित् अनेकान्तस्वरूप विकलादेश और सप्तभंगी १५ मोक्षमार्गमे दृष्टिकी मुख्यता है १२ केवलज्ञानस्वभावमीमांसा १ उपोद्धात २. चेतन पदार्थका स्वतन्त्र अस्तित्व ३ आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है ४. अन्य प्रकारसे महिमावन्त केवलज्ञानका समर्थन ५. दर्पण और ज्ञानस्वभाव ६. शंका-समाधान ३६२ الله الله الله فرم الله له ل ३६४ ३६७ ३७१ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३८९ ३८० له سلم سے بدلہ لے اس ३९० ३९२ ३९४ १. क्रम संख्या ८ दो बार लिपिबद्ध हो गया है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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