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________________ सम्यक् नियतिस्वरूपमीमांसा . २०१ रखकर हरिवंशपुराणमें कहा भी है स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमानते। ' , स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माविमुच्यते ४-१२॥ आत्मा स्वयं अपना कार्य करता है, स्वय उसका फल भोगता है, स्वय संसारमें परिभ्रमण करता है और स्वयं ही राग-द्वेष आदिरूप संसारसे मुक्त होता है ।।४४-१२॥ प्रत्येक वस्तु अपना कार्य बाह्य सामग्रीकी अपेक्षा किये विना ही करता है यह हम पहले ही लिख आये हैं सो इससे भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यके समय बाह्म निमित्तको केवल बाह्य व्याप्तिवश हो स्वीकार किया गया है। वह विवक्षित कार्यमें किसी प्रकारको सहायता करता है, इसलिये नहीं। जीवकी विभाव पर्याय और स्वभाव पर्याय होनेका यह कारण नहीं है कि जीवकी विभाव पर्याय होते समय परद्रव्य उसमें कुछ करामत कर देता है। करता तो जीव उसे स्वयं ही है। किन्तु जब जीवका परकी ओर झुकावरूप परिणाम होता है तब विभाव पर्याय होती है और जब स्वपरके भेद-विज्ञानके साथ स्वकी ओर झुकाववाला परिणाम होता है तब स्वभाव पर्याय होती है। ३ आगमके प्रकाशमें सम्यक् नियतिका समर्थन इस प्रकार नियत स्वभावके अन्तर्गत नियत उपादानसे नियत कार्य होनेके कारण द्रव्यादिकी अपेक्षा पूर्वमें कही गई व्यवस्थायें कैसे नियत हैं यह व्यवस्था बन जाती है। आगममें भी ऐसे प्रमाण विपुल मात्रामें उपलब्ध होते हैं जिनसे उक्त तथ्योंके साथ सम्यक नियतिका स्पष्टरूपसे समर्थन होता है । उदाहरणार्थ द्वादशानुप्रेक्षामें स्वामी कार्तिकेय कहते जं जस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण जम्मि कालम्मि । णाणं जिणेण णियदं जम्मं अहम मरणं बा ॥३२१॥ त तस्स तम्मि देम तेण विहाण तम्मि कालम्मि । को सक्का चात्वेदूं इंदोबा मह जिणिदो वा ॥३२२॥ जिस जीवका जिस देश और जिस कालमें जिस विधिसे जन्म अथवा मरण जिनेन्द्रदेवने नियत जाना है॥३२२॥ उसका उस देश और उस कालमें जन्म अथवा मरण उस विधिसे नियमसे होता है। चाहे इन्द्र हो अथवा स्वयं जिनेन्द्रदेव हों इसे चलायमान कौन कर सकता है, अर्थात् कोई भी इसे चलायमान नहीं कर सकता ॥३२३॥
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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