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________________ सम्यक् नियतिस्वरूपमीमांसा मानना और विभावपर्यायोंके विषयमें अनियमकी बात करना युक्त प्रतीत नहीं होना। ___ शंका-अनगारधर्मामृतमें विभावका अर्थ निमित्त किया गया है, इसलिये विभावपर्याय और स्वभावपर्यायका यह अर्थ होता है कि जो पर्यायें बाह्य निमित्तोंसे होती हैं वे विभावपर्यायें कहलाती हैं और जो स्वभावसे होती हैं वे स्वभावपर्यायें कहलाती हैं। इस प्रकार उक्त पर्यायोंका यह अर्थ करना ही संगत प्रतीत होता है ? समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि आगममें यह बतलाया गया है कि आकाशके अवगाहनके लिये वही स्वयं निमित्त है और कालद्रव्यके परिणमनके लिए भी वही स्वयं निमित्त है। इसके अतिरिक्त लोकमें जीवादि द्रव्योंके अन्य जितने भी कार्य होते है उनके कोई न कोई बाह्य निमित्त अवश्य होते हैं, चाहे वे स्वभावपर्यायें ही क्यों न हों। वस्तुतः विभावपर्याय और स्वभावपर्याय ऐसा भेद होनेका कारण अन्य है। पुद्गल द्रव्यकी तो चाल ही निराली है एक तो वह जड है और दूसरे योग्य स्थिति आनेपर उसकी स्वभावपर्याय ही विभावपरिणमनकी कारण होती है आदि । किन्तु जीवद्रव्यकी स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अब प्रकृतमें विचार यह करना है कि विभाव पर्यायोंको जो बाह्य निमित्तोंसे होना कहा गया है सो वे द्रव्य यदि कर्ता होकर दूसरे द्रव्यका कार्य करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि परिणमन कोई करता है और कार्य कोई दूसरा द्रव्य कहलाता है। किन्तु उन महाशयोको यदि यह अर्थ मान्य न हो तो फिर वे बाह्म निमित्तोंसे विभावपर्यायका होना क्यों कहते हैं, फिर तो उन्हें यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि बलात् कोई किसीको विभावरूप परिणमाता नही है। इससे यह कार्य हुआ यह केवल व्यवहारमात्र है जो बाह्य व्याप्तिको देखकर किया जाता है। और.. इसी तथ्यको देखकर समयसार गाथा ८० में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का उल्लेखकर ८३ गाथा द्वारा बाह्य निमित्तमें परमार्थसे परके कार्यके कर्तृत्वका निषेध कर दिया गया है। शका-यदि यह बात है तो इष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये तद्योग्य सामग्रीका संयोजन क्यों किया जाता है ? समाधान-बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रतामें प्रत्येक कार्य होता है इस नियमके अनुसार इष्ट कार्यको सिद्धि के लिये प्रत्येक व्यक्ति उसके संयोजनमें प्रयत्नशील होता है... कार्य होता है अपने कालमें स्वयं ही, बाह्म सामग्री तो उसे उत्पन्न करती नहीं । आभ्यन्तर सामग्री
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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