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________________ ર૭૮ जैनतत्त्वमीमांसा शिक जीव हैं। इन दोनोंके अपूर्वकरणमें पहुँचनेपर जो स्थितिकाण्डक घात होते हैं उनमें जमीन-आसमानका अन्तर रहता है, सो क्यों ? विचार कीजिये। ऐसे जोवोंके इन कार्यों में अन्य द्रव्य क्षेत्र आदि फेर-फार नहीं कर सकते ? सो क्यों, क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्रत्येक द्रव्यका परिणमन अपने-अपने नियत उपादानके अनुसार क्रम नियमित ही होता है। जो महाशय अपने विकल्पोंके अनुसार नियत उपादानको तिलांजलि देकर बाह्य सामग्रीके बलपर दूसरे द्रव्योके कार्योम फेर-फारकी कल्पना करके असत् कथन करते है उन्हे उक्त तथ्योंपर विचार करना चाहिये। धवला पुस्तक ६ पृ० २०४-२०५ मे पाँच लब्धियोंका स्वरूप निर्देश कर यह कहा गया है कि इन पाँच लब्धियोंके होनेपर तीन करणयोग्य परिणामोकी उपलब्धि होती है। तब प्रश्न किया गया है कि सूत्र में तो काललब्धि हो कही गई है। ऐसी पृच्छा द्वारा शंकाकार यह जानना चाहता है कि जब काललब्धिके बलसे ही सम्यक्त्वको उत्पत्ति होती है तब क्षयोपशम आदि पाँच लब्धियोका उपदेश क्यो दिया गया है ? इस शकाका समाधान करते हुए आचार्य कहते है कि प्रतिसमय अनन्तगुणहीन अनुभागकी उदोरणा, अनन्तगुणित क्रमसे वर्धमान विशुद्धि और आचार्य का उपदेश यह सब बाह्य सामग्रीको प्राप्ति एक काललब्धिके होनेपर ही | होती है। इससे भी यही मालम पडता है कि जिस कार्यका जो नियत समय है उसी समय ही वह कार्य बाह्य-आभ्यान्तर सामग्रोको निमित्तकर होता है। इन दोनो प्रकारकी सामग्रीके युगपत प्राप्त होनेमे कभी भी व्यवधान नहीं पड़ता इतना सुनिश्चित है। धवलाजीका वह उद्धरण इस प्रकार है___ एदेसु सतमु करणजोग्गभावुवलभादो । मृत्ते काललद्धी चैव परूविदा, नम्हि एदासि लद्धोण कथं स भवो ? ण, पडिसमयमणतगुणहीणअणुभागुदीरणाए अणतगुणकमेण वड्माणविसोहीए आइरियो वदेसलभस्स य तत्थेव सभवादो । २. शंका-समाधान शंका-स्वभावपर्यायें क्रमनियमित ही होती हैं, पर विभावपर्याय भी क्रमनियमितरूपसे ही होती है ऐसा कोई एकान्त नही है ? समाधान-जब कि परमागममे कार्य-कारणभावका विचार एक ही प्रकारसे किया गया है ऐसी अवस्थामे स्वभाव पर्यायोंको क्रमनियमित
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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