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________________ Peeperracent ર૭૬ जैनतत्त्वमीमांसा समयसे यह स्थिति स्वयं बदल जाती है। तब कर्म और नोकर्म उसी प्रकारके जीवोंके परिणमनमें बाह्य निमित्त होने लगते हैं। विचार तो कीजिये कि जो औदारिक शरीर नामकर्म उत्तम भोगभूमिमें वहाँ प्राप्त होनेवाले शरीरके होने में बाह्य निमित्त होता है वही औदारिक शरीर नामकर्म कर्मभूमिके अन्तिम कालमें वहाँ प्राप्त होनेवाले शरीरके होने में भी बाह्य निमित्त होता है। दोनोंका अनुभाग एक समान होते हुए भी ऐसा भेद क्यों पडता है ? विचार कोजिये? यदि कहा जाय कि कालभेदसे ऐसा होता है तो कालमें अन्य द्रव्यके कार्यका कर्तृत्व स्वीकार करना पड़ेगा जो युक्तियुक्त नहीं है। अत यही मानना पड़ता है कि प्रत्येक द्रव्यका ऐसा स्वभाव है कि अपने प्रति समयके नियत उपादानके अनुसार वह भिन्न-भिन्न प्रकारसे परिणमन करता है. अतः यह स्वीकार कर लेना ही आगम सम्मत प्रतीत होता है कि मात्र बाह्य व्याप्तिवश ही बाह्य सामग्रीमें कारणता स्वीकार की गई है। इसी प्रकार इन कालोको अन्तर्व्यवस्था पर ध्यान दिया जाय तो ज्ञात होता है कि उत्सपिणीके तृतीय कालमें और अवसर्पिणीके चतुर्थ कालमे चौबीस तीर्थपूर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, नौ बलभद्र, ग्यारह रुद्र और चौबीस कामदेवोंका उत्पन्न होना सुनिश्चित है। नियमानुसार होनेवाले ये पद कभी अधिक और कभी कम क्यों नही होते. विचार कीजिये। कर्मभूमिमे आयकर्मका बन्ध किसीके आठों अपकर्षकालोंमे और किसीके सात आदि अपकर्ष कालोंमें या मरणके अन्तर्महर्त पहले ही क्यो होता है। इसके बन्धके योग्य परिणाम उसी समय होते हैं सो क्यों, विचार कीजिये। आयुबन्धके बाद भुज्यमान आयु जितनी शेष रहती है उसका पूरा भोग होकर ही जीवका परभव गमन होता है सो क्यो, विष, शस्त्रादिके बलसे इसमें फेर-फार क्यो नहीं होता, विचार कीजिये । जो इस व्यवस्थाके भीतर कारण अन्तनिहित है उसे ध्यानमे लीजिये। छह माह आठ समयमें छह सौ आठ जीव नियमसे मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव नित्य विनोदसे निकलकर व्यवहार राशिमें आते है सो क्यों, विचार कीजिये। क्या इससे वस्तुस्वभावके ऊपर सुन्दर प्रकाश नहीं पड़ता। विकल्पके अनुसार कुछ भी बोलना और लिखना और बात है। यदि मिथ्या तज्ञानके बलसे होनेवाले विकल्पके अनुसार वस्तुका परिणमन मान लिया जाय तो यह भी कहा जा सकता है कि बाह्य सामग्रीके बलसे अभव्य भी भव्य :
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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