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________________ क्रम-नियमितपर्यायमीमांसा २५९ पदार्थ में अवस्थित हैं और भविष्यत् कालमें जो-जो पर्यायें होगीं वे भी द्रव्यरूपसे वर्तमान पदार्थ में अवस्थित हैं । अतएव जिस पर्यायके उत्पादका जो समय होता है उसी समय में वह पर्याय उत्पन्न होती है और जिस पर्यायके व्ययका जो समय होता है उसी समय वह विलीन हो जाती है । ऐसी एक भी पर्याय नहीं है जो द्रव्यरूपसे वस्तुमें न हो और उत्पन्न हो जाय और ऐसी भी कोई पर्याय नहीं है जिसका व्यय होनेपर द्रव्यरूपसे वस्तुमें उसका अस्तित्व ही न हो। इसी बातको स्पष्ट करते हुए आप्तमीमांसामें स्वामी समन्तभद्र कहते हैं यद्यसत् सर्वथा कार्यं तन्मा जनिं खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वासः कार्यजन्मनि ॥ ४२ ॥ यदि कार्यं सर्वथा असत् है । अर्थात् जिस प्रकार वह पर्यायरूपसे असत् है उसी प्रकार वह द्रव्यरूपसे भी असत् है तो जिस प्रकार आकाशकुसुमकी उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार कार्यकी भी उत्पत्ति मत होओ तथा उपादानका नियम भी न रहे और कार्यके पैदा होनेमें समाश्वास भी न होवे ||४२ ॥ इस बातको आचार्य विद्यानन्दने उक्त श्लोककी टीकामें इन शब्दोंमें स्वीकार किया है कथञ्चत्सत् एव स्थितत्वोत्पन्नत्वघटनाद्विनाशघटनवद् । जैसे कथंचित् सत्का ही विनाश घटित होता है उसी प्रकार कथंचित् सत्का ही धीव्य और उत्पाद घटित होता है । प्रध्वंसाभावके समर्थनके प्रसंगसे इसी बातको और भी स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्द अष्टसहस्त्री पृष्ठ ५३ में कहते हैं स हि द्रव्यस्य वा स्यात्पर्यायस्य वा ? न तावद् द्रव्यस्य, नित्यत्वात् । नापि पर्यायस्य, द्रव्यरूपेण धौव्यात् । तथाहि विवादापन्नं मध्यादी मलादि पर्यायार्थतया नश्वरमपि द्रव्यार्थतया ध्रुवम्, सत्वान्यथानुपपत्तेः । वह अत्यन्त विनाश द्रव्यका होता है या पर्यायका ? द्रव्यका तो हो नहीं सकता, क्योंकि वह नित्य है । पर्यायका भी नहीं हो सकता, क्योंकि वह द्रव्यरूपसे धौव्य है । यथा- विवादास्पद मणि आदिमें मल आदि पर्यायरूपसे नश्वर होकर भी द्रव्यरूपसे ध्रुव है, अन्यथा उसकी सत्त्वरूपसे उपपत्ति नहीं बन सकती ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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