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________________ २५८ जैनसत्त्वमीमांसा पूर्वमुक्ताफलानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य सूधास्यावस्थानात् लक्षण्य प्रसिद्धिमवतरति । तथैव हि परीगृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषत्तरोत्तरेषत्तरोत्तरपरिणामानामुदयनात् पूर्वपूर्वपरिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिसूत्रकस्य प्रवाहस्यावस्थानात् त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति । जिस प्रकार विवक्षित लम्बाईको लिए हए लटकती हई मोतीकी मालामें अपने-अपने स्थानमें चमकते हुए सभो मोतियोंमें आगे-आगेके स्थानोमे आगे-आगेके मोतियोंके प्रगट होनेसे अतएव पूर्व-पूर्वके मोतियोंके अस्तगत होते जानेसे तथा सभी मोतियोमें अनुस्यूतिके सूचक एक होरेके अवस्थित होनेसे उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप लक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार स्वीकृत नित्यवत्तिसे निवर्तमान द्रव्यमे अपने-अपने कालमें प्रकाशमान होनेवाली सभी पर्यायोमे आगे-आगेके कालोंमें आगेआगेकी पर्यायोंके उत्पन्न होनेसे अतएव पूर्व-पूर्व पर्यायोका व्यय होनेसे तथा इन सभी पर्यायोंमे अनुस्यूतिको लिए हुए एक प्रवाहके अवस्थित होनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण्य प्रसिद्धिको प्राप्त होता है। ___ यह प्रवचनसारको टीकाका उद्धरण है जो कि प्रत्येक द्रव्यमे उत्पादादि त्रयके समर्थनके लिए आया है। इसमे द्रव्यस्थानीय मोतीकी माला है, उत्पादस्थानीय आगेका मोती है, व्यवस्थानीय अस्तगत पिछला मोती है और अन्वय (उर्ध्वतासामान्य) स्थानीय डोरा है। जिस प्रकार मोतीकी मालामे सभी मोती अवने-अपने स्थानमे चमक रहे है। गणनाक्रमसे उनमेंसे पीछे-पीछेका एक-एक मोती अतीत होता जाता है और आगे-आगेका एक-एक मोती प्रगट हो जाता है। फिर भी सभी मोतियोमे डोरा अनुस्यूत होनेसे उनमें अन्वय बना रहता है । इसलिए लक्षण्यको सिद्धि होती है। उसी प्रकार नित्य परिणामस्वभाव प्रत्येक द्रव्यमें अतीत, वर्तमान, और अनागत सभी पर्यापें अपनेअपने कालमे प्रकाशित हो रही हैं। अतएव उनमेसे पूर्व-पूर्व पर्यायोंके क्रमसे व्ययको प्राप्त होते जानेपर आगे-आगेकी पर्यायें उत्पादरूप होती जाती है और उनमें अनुस्यूतिको लिए हए अन्वयरूप एक अखण्ड प्रवाह (ऊर्ध्वता सामान्य ) निरन्तर अवस्थित रहता है, इसलिए उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप त्रैलक्षण्यकी सिद्धि होती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ___ इसको यदि और अधिक स्पष्टरूपसे देखा जाय तो ज्ञात होता है कि भूतकालमे पदार्थमें जो-जो पर्याये हुई बों वे सब द्रव्यरूपसे वर्तमान
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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