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________________ २२२ जैनतत्त्वमीमांसा सकती है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि सभी पर्यायें प्रतिनियत क्रम से ही होती हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है । (६) किसी वस्तुमें विवक्षित कार्यरूपसे परिणमनकी उपादान योग्यताके रहने पर भी उसके उस रूपसे परिणमन कराने में समर्थ जब बाह्य सामग्रो मिलती है तभी वह कार्य होता है, अन्यथा नहीं होता। इससे भी सभी कार्य क्रम नियमित हो होते हैं यह नहीं सिद्ध होता। (७) उनकी तरफसे एक बात यह भी कही जाती है कि 'जैसे मिट्टीमें जिस प्रकार कुम्भ निर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है उसी प्रकार कुम्भकार व्यक्तिमें भी कुम्भनिर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है, परन्तु दोनोंमें अन्तर यह है कि मिट्टी कुम्भको कर्ता इस दृष्टिसे है कि वह कुम्भरूप परिणत होती है और कुम्भकार व्यक्ति कुम्भका कर्ता इस दृष्टिसे है कि वह मिट्टीके कुम्भरूप परिणत होनेमें सहायक होता है ।' । (८) उनका यह भी कहना है कि कार्यकी उत्पत्तिमें जो स्वभाव आदि पाँचको कारण माना है सो इस मान्यताके विषयमें तो मेरा साधारणतया कोई विरोध नहीं है, फिर भी जो विरोध है वह प्रत्येक द्रव्यका जो षड्गुण-हानि वृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमन हो रहा है इस सम्बन्धमें है, क्योंकि इस परिणमनमें निमित्तोंको कारणता प्राप्त नहीं है। यदि उस परिणमनमें भी निमित्तोंको कारण माना जाय तो फिर उसका स्वप्रत्ययपना ही समाप्त हो जायगा जिससे आगममें प्रदर्शित परिणमनके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेदोकी व्यवस्था ही भंग हो जायगी। अर्थात् तब सभी परिणमन स्व-परप्रत्यय हो सिद्ध होगे, कोई भी परिणमन स्वप्रत्यय सिद्ध नहीं होगा। (९) उनका यह भी कहना है कि जीवको अन्तिम संसाररूप पर्यायके अनन्तर उसकी प्रथम मोक्ष पर्यायकी उत्पत्ति होती है, परन्तु मोक्षपर्यायको उत्पत्तिका कारण द्रव्य कर्मोका, नोकर्मोंका और भाव कर्मोका विच्छेद ही है, संसारकी अन्तिम पर्याय नहीं। (१०) उक्त कथनकी पुष्टिमें उनका कहना है कि आगममें पूर्व - पर्याय विशिष्ट द्रव्यको हो कार्यके प्रति उपादान कारण माना गया है, पूर्व पर्यायको नहीं। इसका आधार यह है कि पूर्व पर्याय विनष्ट होकर ही उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति होती है । (११) उनका यह भी कहना है कि यद्यपि निश्चय रत्नत्रयसे ही जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती है, परन्तु उसे निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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