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________________ २१८ जैनतत्त्वमीमांसा हम पिछले एक प्रकरणमें यह भी लिख आये हैं कि ससारी जीवोंके प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिमें स्वभाव आदि पांच बाह्याभ्यन्तर कारणोंका समवाय होता है, किन्तु इनमें से स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, काल और कर्म इनमेंसे किसीके सम्बन्धमें सक्षेपमें और किसीके सम्बन्धमें विस्तारसे विचार किया पर कार्योत्पत्तिके क्रमके सम्बन्धमें अभी तक आगमके अभिप्रायको स्पष्ट नहीं किया, इसलिये यहाँ पर इस अध्यायके अन्तर्गत उसका विचार करते हैं। २. लौकिक प्रमाणोंका कल्पित उपयोग यह तो सुनिश्चितरूपसे प्रतीतिमे आता है कि लोकमे प्रत्येक कार्य अपने नियत समय पर ही होता है। यद्यपि सार्वजनिक जीवनमें भी जनसाधारणको इसकी प्रतीति होती है और आगमसे भी इसका समर्थन होता है, किन्तु सोनगढ और उसके द्वारा की गई आगमानुसार तत्त्वप्ररूपणाके प्रति स्वाभाविक चिढ होनेके कारण या आगमबाह्य क्रियाकाण्डके लोप होनेके कल्पित भयसे वे ऐसी विचारधाराका प्रचार करनेमे लगे हुए हैं जिससे तत्व व्यवस्थाके समाप्त होनेका ही भय उत्पन्न हो गया है। उनका कहना है कि "भगवानके ज्ञानमे जिस कालमें जिस वस्तुका जैसा परिणमन झलका है वह उसी प्रकार होगा, प्रत्येक सम्यग्दृष्टिकी ऐसी ही श्रद्धा होती है, इसलिये केवलज्ञानके विषयके अनुसार तो सभी कार्य नियत क्रमसे ही होते है और सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धा भी ऐसी ही रखता है। किन्तु श्रुतज्ञानीके इतने मात्रसे सब समस्याएँ हल नही हो जातीं, इसलिये श्रुतज्ञानके विषयके अनुसार कुछ कार्य नियत क्रमसे भी होते है और कुछ कार्य अनियत क्रममे भी होते है ऐसा अनेकान्त ही ठीक है।' उक्त विचार धारावाल महानुभावोंने अपना यह दृष्टिकोण जयपुर खानिया तत्त्वचर्चाके प्रसंगसे शंका ६के अन्तर्गत तो उपस्थित किये ही था, अन्यत्र भी अपने लिखान और उपदेशों द्वारा इसे व्यक्त करते रहते है । तदनुसार अनेकान्तकी दुहाई देते हुए अपने कल्पित श्रु तज्ञानके बल पर उनका कहना है कि लोकमें स्थूल और सूक्ष्म जितने भी कार्य होते हैं वे सब क्रम नियमित ही होते हैं ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं है । वे अपने उक्त अभिप्रायकी पूर्तिके लिए नियत अन्त्यक्षण प्राप्त सामग्रीसे नियत कार्यको ही जन्म मिलता है इस तथ्यको भी अस्वीकार कर देते हैं। उनके मन्तव्यानुसार कई कार्य तो ऐसे है जो अपने-अपने
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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