SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ जैनतत्त्वमीमांसा ___ समाधान-दृष्टिकी अपेक्षा स्वाश्रितपनेका सम्बन्ध मिथ्यात्वके अभावके साथ है और चर्याकी अपेक्षा स्वाश्रितपनेका सम्बन्ध कषायके अभावके साथ है यही इन दोनोंमें अन्तर है। शंका-दृष्टिकी अपेक्षा स्वाश्रितपनेके कालमें अनन्तानुबन्धी कषायका भी तो अभाव रहता है। ऐसी अवस्थामें वहाँ चर्याकी अपेक्षा स्वाश्रितपनेकी स्वीकृतिमें क्या आपत्ति है ? समाधान-दृष्टिकी अपेक्षा स्वाश्रितपनेकी प्राप्तिके कालमें अनन्तानुबन्धी कषायका अभाव होनेसे चर्याकी अपेक्षा आंशिक स्वाश्रितपनेकी प्राप्ति तो हो ही जाती है इसमें कोई बाधा नहीं आती। सम्यग्दृष्टिके स्वात्मानुभूतिको स्वीकार करनेका कारण भी यही है। सम्यग्दृष्टिकी उपयोगपूर्वक मन्द स्वात्मस्थिति इसीलिये स्वीकार की गई है। आगे जैसे-जैसे कषायका अभाव होता जाता है वैसे-वैसे चर्याकी अपेक्षा स्वात्मस्थितिमें प्रगाढ़ता आती जाती है । ___ शंका-बारहवे गुणस्थानके प्रथम समयमें जब क्षायिक चारित्रकी प्राप्तिके कारण चर्याकी अपेक्षा पूर्ण प्रगाढ़ता आ जाती है तो उसी समयसे इस जीवका पूर्ण स्वाश्रित जीवन प्रारम्भ हो जाना चाहिये ? समाधान नहीं क्योकि अभी उसके आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दरूप योगका सद्भाव बना हुआ है, इसलिये यहाँ क्षायिक चारित्रकी प्राप्ति होने पर भी पूर्ण स्वाश्रितचर्या नहीं स्वीकार की गई है। शंका-चौदहवें गुणस्थानके प्रथम समयमे योगका समस्तरूपसे अभाव हो जाता है, इसलिये वहाँ रत्नत्रयकी पूर्णता होनेसे पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त हो जानी चाहिये ? समाधान-नही, क्योंकि ध्यानकी प्रक्रियाके अनुसार पूर्ण स्वाधीनताका अनुभव करता हुआ भी इस भूमिकामें अन्तर्मुहूर्तकाल तक रुककर हो यह जीव ऐसो अवस्था प्राप्त करता है कि तब जाकर यह पूर्ण स्वाधीनताका अधिकारी होकर पूर्ण स्वतन्त्र हो जाता है । शंका-यदि यह बात है तो पचास्तिकाय गाथा १७२ की समय टीकामे जो यह कहा गया है कि 'अनादिकालसे भेदवासित बुद्धि होनेके कारण प्राथमिक जीव व्यवहारनयसे भिन्न साध्य-साधनभावका अवलम्बन लेकर सुखसे तीर्थका प्रारम्भ करते है' सो ऐसा क्यों कहा गया है। क्या
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy