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________________ षट्कारकमीमांसा . २१३ प्रति प्रीतिको उत्पन्न करनेरूप स्वभाववाला होनेसे राग है, किन्तु रागज्ञान नहीं है। जबकि ऐसा है अतएव मैं स्व-परके अवभासन स्वभाववाला होनेसे चैतन्यस्वरूप ही हूँ। किन्तु राग स्वसंविदित होकर भी परस्वरूपके वेदनसे रहित होनेके कारण अचेतनस्वभाव ही है, इसलिए मै राग नहीं हूँ। यहाँ राग पद उपलक्षण है, इसलिये द्वषाविकसे भी अपने चित्स्वभाव आत्माको पृथक्कर स्वयंको अनुभवना ही सम्यग्दर्शन है यह सिद्ध होता है ॥८॥ इस प्रकार स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय प्रत्येक पर्यायके होते समय निश्चय षट्कारक प्रक्रिया किस प्रकार प्रवृत्त रहती है इसका संक्षेपमें विचार किया। २१ उपसंहार समग्र कयनका तात्पर्य यह है कि संसाररूप अवस्थाके होने में जहाँ निश्चय षटकारक होता है वहाँ व्यवहारसे परको ओर झुकाव रहता ही है और इसी अपेक्षा विभावपर्यायको परसापेक्ष कहकर कारकान्तरकी कल्पनाकी जाती है। यह अवस्था मिथ्यादृष्टिके भी होती है और नारकादि विभाव पर्यायकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टिके भी होती है। इसका निषेध नही। परन्तु अनादिकालसे यह जीव निश्चय षट्कारकरूप स्वाश्रितपनेको भूलकर अपने विकल्प द्वारा या परकी ओर झुकाव द्वारा मात्र व्यवहार षट्कारकरूप पराश्रित बना हुआ है। इसे अब अपनो दृष्टि बदलकर | पुरुषार्थ द्वारा स्वाश्रित होना है, क्योंकि ऐसी दृष्टि बनाये बिना और उस द्वारा स्वभाव रत्नत्रयरूप हुए बिना इसे शुद्धात्मतत्वकी उपलब्धि नहीं हो सकती। इसलिये जोवन संशोधनमें स्वाश्रितपनेका अवलम्बन | होना हो कार्यकारी है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । शंका-जब यह जीव पराश्रितपनेके विकल्पसे निवृत्त होकर स्वाधितपनेकी मुख्यतासे प्रवृत्त होता है तब उसी समय मुक्त क्यों नहीं हो जाता? समाधान-दृष्टिमें स्वाश्रितपनेके होनेपर भी चर्या में जबतक पूर्णरूपसे स्वाश्रितपना नही प्राप्त होता तब तक वह संसारो ही बना रहता है। शका-तो क्या दृष्टिको अपेक्षा स्वाधिसपने में और चर्याको अपेक्षा स्वाश्रितपनेमें अन्तर है?
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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