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________________ १८६ जैनतत्त्वमीमांसा ५. बाह्य षटकारक प्रक्रियाका निर्देश आगे षट्कारकोंका व्यवहारनय और निश्चय नयकी अपेक्षा विचार करना है। उसमें भी सर्वप्रथम व्यवहार नयसे इस विषयको स्पष्ट करेंगे। यह तो सुनिश्चित है कि अंसद्भूत व्यवहारनय पराश्रित विकल्प है, इसलिये इस नयकी अपेक्षा सभी कार्योंका पराश्रित रूपसे ही कथन किया जाता है। अपने प्रतिनियत परिणाम स्वभावके कारण किस समय किस द्रव्यने क्या कार्य किया यह इस नयका विषय नही है। जैसे मिट्टी अपने प्रतिनियत परिणाम स्वभावके कारण जिस समय स्वयं स्वतन्त्र रूपसे घट परिणामको जन्म देती है उस समय कुम्भकार स्वयं स्वतन्त्र रूपसे जो हस्तादिकी क्रिया और विकल्प करता है उसमें बाह्य व्याप्ति वश घट निष्पत्तिको अपेक्षा अनुकूलताका व्यवहार होनेसे कुम्भकार घटका कर्ता कहा जाता है । वस्तुतः उस समय मिट्टी और कुम्भकारने एक साथ पृथक-पथक दो क्रियाये की। फिर भी मिट्टीने घट परिणमन रूप क्रिया की इसे गौण कर यह नय कुम्भकारको उस क्रियाका कर्ता स्वीकार करता है । इसीलिये यह नय असद्भूत अर्थको स्वीकार करने वाला होनेसे उसे उपचरित स्वीकार किया गया है। इस प्रकार कुम्भकार यथार्थमें मिट्टीकी घट परिणमनरूप क्रियाको करनेवाला नहीं होने पर भी अनादिरूढ़ लौकिक जनोके उक्त कारके असद्भूत व्यवहारको लक्ष्यमें लेकर बाह्य व्याप्तिवश जो नय इसे (कुम्भकारने घट बनाया इसे ) स्वीकारता है वह आगममे अपरमार्थभूत ही स्वीकार । किया गया है। शंका-यदि यह बात है तो आगममे इसकी सम्यक् नयोंमे क्यों परिगणना की गई है ? । समाधान-यह मुख्यार्थको स्वीकार करता है, इसलिये इसकी सम्यक् नयोंमें परिगणना नहीं की गई है। किन्तु यह नय मुख्यार्थको सूचित करता है, इसलिये इस नयकी सम्यक् नयोंमे परिगणना की गई है। दो द्रव्योंमें स्वरूप सत्ताको अपेक्षा सर्वथा भेद होने पर भी अभेदकी कल्पना करना इसोका नाम असद्भूत व्यवहार है। प्रकृतमे इसीका दूसरा नाम उपचार है। शंका-पंचाध्यायीकारने दो पदार्थोंमे निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको स्वीकार करनेवाले नयको नयाभास कहा है सो क्यों ? समाधान—यह नय परमार्थभूत अर्थको स्वीकार नहीं करता। फिर
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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