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________________ पदकारकमीमांसा सिविका हेतु है। पण्डितप्रवर आशाधरजीने यही बात. अमगार धर्मामृतमें भी कही है। ___ इससे सिद्ध है कि प्रत्येक द्रव्य अनेकान्तगर्भ अनन्त धर्मोके समुच्चयस्वरूप है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर अनन्त धर्मात्मक वस्तु में स्वतःसिद्ध जो अनन्त धर्म उपलब्ध होते हैं उनमेंसे आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकी आत्मख्याति व्याख्या परिशिष्टमें जिन ४७ शक्तियोंका निर्देश किया है उनमेंसे प्रकृतमें उपयोगी कतिपय शक्तियोंका उल्लेख करना इष्ट समझकर यहाँ निर्देश किया जाता है४. प्रकृतमें उपयोगी शक्तियोंका स्वरूप निवेश १. एक भावशक्ति है, जिससे प्रत्येक द्वव्य अन्वय रूपसे सदा अवस्थित रहती है। २. एक क्रियाशक्ति है जिससे प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूपसिद्ध कारकोंके अनुसार उत्पाद-व्ययरूप अर्थक्रिया करता है। ३. एक कर्म शक्ति है जिससे प्राप्त होनेवाले अपने सिद्ध स्वरूपको द्रव्य स्वयं प्राप्त होता है। ४. एक कर्ताशक्ति है जिससे होनेरूप स्वतःसिद्ध भावका यह द्रव्य भावक होता है। ५. एक करण शक्ति है जिससे यह द्रव्य अपने प्राप्यमाण कर्मकी सिद्धिमें स्वतः साधकतम होता है। ६ एक सम्प्रदान शक्ति है जिससे प्राप्यमाण कर्म स्वयंके लिये समर्पित होता है। ७ एक अपादान शक्ति है जिससे उत्पाद-व्यय भावके अपाय होने पर भी द्रव्य सदा अन्वय रूपसे ध्रुव बना रहता है। ८. एक अधिकरण शक्ति है जिससे भाव्यमान समस्त भावोंका आधार स्वयं द्रव्य होता है। ये कतिपय शक्तियाँ है । इनसे यह ज्ञात होता है कि प्रत्येक द्रव्यकी जितनी अर्थ-व्यंजनरूप पर्यायें होती है वे सब कारकान्तर निरपेक्ष ही होती हैं । वस्तुः कारकान्तरोंका अन्य द्रव्यके किसी भी कार्यके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्यमें ऐसी भी एक शक्ति है जिससे किसी। का अपनेसे भिन्न अन्य किसीके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका नाम सम्बन्ध शक्ति है। इससे यही सूचित होता है कि प्रत्येक नव्या अपना ही स्वामी है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक दशक स्वरूप यामागायलप जितना भी स्व' है वह.. सेंब वस्त की है। न तो वस्तु अपने 'स्व' का उल्लंघन कर अन्यरूप हो "सकती है और न ही उसमें अन्य वस्तुका किसी भी अपेक्षासे सम्बन्ध ही हो सकता है। वह निरन्तर अपनी बचलित सीमामें सदाकाल अवस्थित रहती है ऐसी परनिरारूपसे स्वयंसित वस्त व्यवस्था है..' im a tes
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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