SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्कारकमीमांसा षट्कारक निजशक्तिसे निजमें होते भव्य । मिथ्या मतके योगसे उलट रहा मन्तव्य ॥ १ उपोडात ___ यहाँतक हमने बाह्यनिमित्त और निश्चय उपादानके साथ कर्तृकर्मभावकी मीमांसा की। अब निज शक्तियोको मुख्यतासे प्रत्येक द्रव्यमे जो स्वतन्त्र षट्कारकरूप परिणति होती है वह किस प्रकार घटित होती है तथा वह भूतार्थ क्यों है इसकी मीमांसाके साथ अविनाभाववश जो बाह्य वस्तुमे कारकपनेका व्यवहार किया जाता है वह अभूतार्थ क्यों है इसका इस अध्यायमें विचार करेंगे । २ कारकका व्युत्पत्यर्थ तथा भेद व्याकरणके अनुसार कारक शब्दको व्युत्पत्ति है-'करोति क्रिया निवर्तयतीतकारक:'-जो प्रत्येक क्रियाके प्रति प्रयोजक हो उसे कारक कहते हैं। इस नियमके अनुसार कारक छह हैं-कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । क्रिया व्यापारमें जो स्वतन्त्ररूपसे अर्थका प्रयोजक होता है वह कर्ताकारक कहलाता है। कर्ताकी क्रिया द्वारा ग्रहण करनेके लिए जो अत्यन्त इष्टकारक होता है वह कर्मकारक कहलाता है। क्रियाकी सिद्धिमें जो साधकतम होता है वह करण कारक कहलाता है। कर्मके द्वारा जो अभिप्रेत होता है वह सम्प्रदान कारक कहलाता है। जो अपायकी सिद्धिमें मर्यादाभूत कारक है वह अपादानकारक कहलाता है और जो क्रियाका आधारभूत कारक है वह अधिकरणकारक कहलाता है। ये छहों क्रियाके प्रति किसी-न-किसी प्रकार प्रयोजक है, इसलिए इनकी कारक संज्ञा है। शंका-सम्बन्धको भी कारक मानना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योकि सम्बन्ध क्रियाके प्रति प्रयोजक नही होता. इसलिए उसकी कारकोमे परिगणना नहीं की गई है। उदाहरणार्थ वह जिनदत्तके मकानको देखता है इस उल्लेखमें 'जिनदत्तके' यह उल्लेख अन्यथासिद्ध है, इसलिए उसमें कारकपना घटित नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जो किसी-न-किसी रूपमे क्रियाके प्रति प्रयोजक
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy