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________________ कर्तृकर्ममीमांसा १८१ ater मतके अनुसार तो देव, नारक, तिर्यश्च और मनुष्य प्राणियोंको विष्णु करता है उसी प्रकार श्रमणोंके मतानुसार यदि षट्कायिक जीवोंको आत्मा करता है तो लौकिक जनोंका और श्रमणोंका एक सिद्धान्त निश्चित हुआ । उसमें कुछ विशेषता दिखलाई नहीं देती, क्योंकि ऐसा माननेपर लौकिक जनोंके अनुसार जिस प्रकार विष्णु परका कर्ता सिद्ध होता है उसी प्रकार श्रमणोंके यहाँ भी आत्मा देवपर्याय आदिका कर्ता सिद्ध हो जाता है और इस प्रकार देव, मनुष्य और असुर सहित सब लोकके नित्य कर्ता होनेसे लौकिक जन और श्रमण उन दोनोंको ही कोई मोक्ष प्राप्त होगा ऐसा दिखलाई नहीं देता ।। ३२१-३२३|| अत. आत्मा अन्यका कर्ता होता है इस अनादि लोकरूढ़ व्यवहारको छोड़कर सिद्धान्तरूपमें यही मानना उचित है कि जिस समय जो जिस भावरूपसे परिणमता है उस समय वह उस भावका कर्ता होता है । । इसी बात को समय प्राभृतके कलशोंमें पुद्गल और जीवके आश्रयसे जिन शब्दों में व्यक्त किया है यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए स्थितेत्यविघ्ना खलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्ति । तस्या स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ ६४ ॥ स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्ति । तस्या स्थिताया स करोति भावं यः स्वस्य तस्यैव भवेत्स कर्ता ||६६ ॥ इस प्रकार पूर्वोक्त कथनसे पुद्गल द्रव्यकी स्वभावभूत परिणामशक्ति बिना बाधा सिद्ध होती है और उसके सिद्ध होनेपर वह अपने जिस भावको करता है उसका वही कर्ता होता है। तथा इसी प्रकार पूर्वोक्त कथनसे जीवद्रव्यकी स्वभावभूत परिणामशक्ति भी सिद्ध होती है और उसके सिद्ध होनेपर वह अपने जिस भावको करता है उसका वही कर्ता होता है || ६४-६५॥ इस प्रकार अनादिरूढ़ लोक व्यवहारकी दृष्टिसे कर्ता-कर्म की पद्धतिका जो क्रम है वह ठीक न होकर वस्तुमर्यादाकी दृष्टिसे कर्ता-कर्मपद्धतिका क्रम किस प्रकार ठोक है इसकी सम्यक्प्रकार से मीमांसा की ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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