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________________ जैनतत्त्वमीमांसा कि वह इस साधन सामग्रीके मिलनेपर भी अपनी अपनी परिणमनशक्तिके बल पर स्वकालमें ही होता है। यही कारण है कि जिन पाँच कारणोंका पूर्वमें उल्लेख कर आये हैं उनमें कालको भी परिगणित किया गया है। इसमें भी हम कार्योत्पत्तिका मुख्य साधन जो पुरुषार्थ है उसपर तो दृष्टिपात करें नहीं और हमारा जब जो कार्य होना होगा, होगा ही यह मान कर प्रमादी बन जाँय यह उचित नहीं है । सर्वत्र विचार इस बातका करना चाहिए कि यहाँ ऐसे सिद्धान्तका प्रतिपादन किस अभिप्रायसे किया गया है। वास्तवमें चारों अनुयोगोंका सार वीतरागता ही है, वैसे विपर्यास करनेके लिए सर्वत्र स्थान है। उदाहरण स्वरूप प्रथमानुयोगको ही लीजिए। उसमें महापुरुषोंकी अतीत जीवन घटनाओंके समान भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाएं भी अंकित की गई हैं। अब यदि कोई व्यक्ति उनकी भविष्यसम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढ़े और कहे कि जैसे इन महापुरुषोंकी भविष्य जीवन घटनाएँ सुनिश्चित रहीं उसी प्रकार हमारा भविष्य भी सुनिश्चित है. अतएव अब हमें कुछ भी नहीं करना है । जब जो होना होगा, होगा ही, तो क्या इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित्त कहा जायगा ? यदि कहो कि इस आधारसे उसका ऐसा विकल्प करना उचित नहीं है। किन्तु उसे उन भविष्य-सम्बन्धी जीवन घटनाओंको पढ़कर ऐसा निर्णय करना चाहिए कि जिस प्रकार ये महापुरुष अपनी अपनी हीन अवस्थासे पुरुषार्थ द्वारा उच्च अवस्थाको प्राप्त हुए है उसी प्रकार हमें भी अपने पुरुषार्थ द्वारा अपनेमें उच्च अवस्था प्रकट करनी है। तो हम पूछते हैं कि फिर प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इस सिद्धान्तको सुनकर उसका विपर्यास क्यों करते हो । वास्तवमें यह सिद्धान्त किसीको प्रमादी बनानेवाला नहीं है । जो इसका विपर्यास करता है वह प्रमादी बनकर संसारका पात्र होता है और जो इस सिद्धान्तमें छिपे हुए रहस्यको जान लेता है वह परको कर्तृत्व-बुद्धिका त्याग कर पुरुषार्थ द्वारा स्वभाव सन्मुख हो मोक्षका पात्र होता है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है ऐसी यथार्थ श्रद्धा होनेपर 'परका में कुछ भी कर सकता हूँ' ऐसी कतत्वबुद्धि तो छुट हो जाती है। साथ ही मैं अपनी आगे होनेवाली पर्यायोंमें कुछ भी फेर-फार कर सकता हूँ इस अहंकारका भी लोप हो जाता है। उक्त कर्तृत्वबुद्धि छूटकर ज्ञाता-दृष्टा बननेके लिए और अपने जीवन में वीतरागताको प्रगट करनेके लिए इस सिद्धान्तको स्वीकार करनेका बहुत बड़ा महत्व है । जो महानुभाव समझते हैं कि इस सिद्धान्तके स्वीकार करनेसे
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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