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________________ उभयनिमित्त-मीमांसा १३९ इस प्रकार इस कथनसे भी यही विदित होता है कि प्रत्येक कार्य अपने अपने स्वकालके प्राप्त होनेपर ही होता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि स्वकालके प्राप्त होनेपर वह व्यवहारसे अपने आप हो जाता है। इस अपेक्षा होता तो है वह स्वभाव आदि पाँचके समवायसे ही। पर जिस कार्यका जो स्वकाल है उसके प्राप्त होनेपर ही इन पाँचका समवाय होता है और तभी वह कार्य होता है ऐसा यहाँ पर समझना चाहिए। आचार्य कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कालादिलब्धिके प्राप्त होनेपर आत्मा परमात्मा हो जाता है इसका समर्थन करते हुए स्वयं कहते हैं अइसोहणजोएण सुद्ध हेमं हवेइ जह तह य । कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि ॥२४॥ इसका अर्थ करते हुए पण्डितप्रवर जयचन्द्रजी छावड़ा लिखते हैं जैसे सुवर्ण पाषाण है सो सौधनेंकी सामग्रीके सम्बन्ध करि शुद्ध सुवर्ण होय है तेसै काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप सामग्रीकी प्राप्ति ताकरि यहु आत्मा कर्मके सयोगकरि अशुद्ध है सो ही परमात्मा होय है ॥२४॥ इसी तथ्यका समर्थन करते हुए स्वामी कार्तिकेय भी अपनी द्वादशानुपेक्षामें कहते हैं-- कालाइलखिजुत्ता णाणासत्तीहिं संजुदा अत्था । परिणममाणा हि सयं ण सक्कदे को वि वारेहूँ । इसका अर्थ पण्डित जयचन्दजी छावड़ाने इन शब्दोंमें किया है-- सर्व ही पदार्थ काल आदि लम्धिकरि सहित भये नाना शक्तिसंयुक्त है तैसे ही स्वय परिणम हैं तिनकू परिणमत कोई निवारनेकू समर्थ नाही ॥२१९॥ ___इस विषयमे मान्य सिद्धान्त है कि ६ माह ८ समयमें ६०८ जीव मोक्ष जाते हैं और यह भी सुनिश्चित है कि अनन्तानन्त जीवराशिमेसे युक्तानन्तप्रमाण जीवराशिको छोड़कर शेष जीवराशि भव्य है सो इस कथनसे भी उक्त तथ्य ही फलित होता है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जानेपर भी, कि प्रत्येक कार्य अपने अपने स्वकालमें अपनी अपनी योग्यतानुसार ही होता है, और अब जो कार्य होता है तब अन्य निमित्त भी तदनुकूल मिल जाते है, यहाँ यह विचारणीय हो जाता है कि प्रत्येक समयमें वह कार्य होता कैसे है ? क्या वह निश्चयसे स्वयं होता हुआ भी अन्य कोई कारण है जिसको निमित्तकर वह कार्य होता है ? विचार करनेपर विदित होता है
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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