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________________ जेनतत्त्वमीमांसा करता। उस समय यह आत्मा अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावके सन्मुख हुआ है, इसलिए उसके अव्यक्त भावसे ही मिथ्यात्वकी सत्ता शेष है, । अत: ऐसे कार्य विशेषके होनेमें कोई बाधा नही आती। यहाँ रागकी मुख्यता नहीं है, ज्ञानने रागसे पृथक् होनेका कार्य प्रारम्भ कर दिया है। उसीका यह फल है। इन सब बातोंको समझकर हमने जैनतत्त्वमीमांसाके इस दूसरे संस्करणमें तत्त्वज्ञान सम्बन्धी सभी तथ्योंको आगमके आधारपर स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है। हमने इस संस्करणमें इस बातका भी पूरा ध्यान रखा है कि इस संस्करणमें जो भो लिखा जाय उसकी आगमसे सुनिश्चित पूष्टि होनी चाहिये। हमें इस कार्यको सम्पादन करते समय तज्ज्ञ जिन विद्वानोका वांछित सहयोग मिला है इसके लिये हम उनके हृदयसे आभारी है। साथ ही हम श्री महावीर प्रसके मालिक श्री बाबूलालजी फागुल्लको भी स्मरण कर लेना नहीं भूल जाना चाहते है। उन्होंने हमारी अस्वस्थ अवस्थाको देखकर इसके मुद्रणमे हमारी सुविधाका पूरा ध्यान रखकर शीघ्रातिशीघ्र इसके मुद्रणमें वांछित सहयोग दिया है। हमने प्रथम संस्करणके समय जो 'आत्मनिवेदन' मे अपने भाव व्यक्त किये थे और आदरणीय श्री जगन्मोहनलाल जी शास्त्री ने प्राक्कथन लिखा था वे इस संस्करणके प्रकाशनके समय भी उतने हो उपयोगी है जितने उस समय थे। इसलिये यहाँ उन्हे भी यथावत् रूपमे दे रहे है। आशा है कि विद्वत्समाज हमारे इस स्वल्प प्रयत्नको हृदयसे स्वीकार कर जिनमार्गको प्रभावनामें सहायक बनेगा। विज्ञेषु किमधिकम् । बी० २।२४९ निर्वाण भवन फलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री रवीन्द्रपुरी वाराणसी-५ ३-८-७८
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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