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________________ आत्मनिवेदन यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि आगम सम्मत व्याख्याओंके आधार पर यदि हम चर्चा करेंगे तो हमें सफलता नहीं मिलेगी। इससे उन्होंने आम जनताके चित्तमें द्विविधा उत्पन्न करनेका मार्ग अंगीकार किया इस प्रसंगसे हम अपने सहयोगी विद्वानोंको लक्ष्यकर एक बातका निर्देश अवश्य कर देना चाहते हैं। वह यह कि वे जिनागमके मुख हैं। अतः उन्हे लोकरीतिको गोणकर ही आगमके अनुसार समाजका मार्गदर्शन करना चाहिये। भगवान् अरहन्तदेवने अपनी वीतराग वाणी द्वारा वीतराग धर्मका ही उपदेश दिया है। वह आत्माका विशुद्धस्वरूप है, इसलिये उसके द्वारा ही परमार्थकी प्राप्ति होना सम्भव है। परमार्थस्वरूप आत्माको प्राप्तिका अन्य कोई मार्ग नहीं है। ज्ञानमार्गकी प्राप्तिका और ज्ञानमार्गका अनुसरण करनेवाले जीवके लिये क्रमसे आगे बढ़कर अरहन्त और सिद्ध अवस्था प्राप्त करनेका यदि कोई समर्थ उपाय है तो वह एकमात्र ज्ञानमार्गपर आरूढ़ होकर स्वभावसे शुद्ध त्रिकाली ज्ञायक आत्माका अप्रमादभावसे अनुसरण करना ही है। आचार्य अमृतचन्द्रके शब्दोंमे इस तथ्यको इन शब्दोमें हृदयंगम किया जा सकता है कि मोक्षमार्गको प्रारम्भिक भूमिकामें ज्ञानधारा और कर्म (राग) धाराका समुच्चय भले ही बना रहे, किन्तु उसमें इतनी विशेषता है कि ज्ञानधारा स्वय सवर निर्जरास्वरूप है, इसलिये वही साक्षात् मोक्षका उपाय है। और कर्मधारा स्वय बन्धस्वरूप है, इसलिये उसके द्वारा संसारपरिपाटी बने रहनेका ही मार्ग प्रशस्त होता है। परमार्थसे न तो वह मोक्षमार्ग है और न ही उसके लक्ष्यसेसाक्षात् मोक्षमार्गको प्राप्ति होना ही सम्भव है ) कुछ महानुभावोंकी यह धारणा है कि प्रारम्भमें जो सम्यग्दर्शनज्ञानस्वरूप मोक्षमार्गकी प्राप्ति होती है वह रागभावकी मन्दतासे ही होती है। किन्तु मिथ्याइष्टि जीवके अपूर्वकरण आदि परिणामोंके कालमें जो गुणश्रेणिनिर्जरा आदि होती है वह रागको मन्दतासे न होकर करणानुयोगके अनुसार अपूर्णकरण आदि परिणाम विशेषके कारण प्राप्त हुई विशुद्धिके कारण होती है। इन परिणामोंका ऐसा ही कुछ माहात्म्य है कि इस जीवके उन विशुद्धिरूप परिणामोंके होनेमे न तो गति बाधक होती है, न लेश्या बाधक होती है और कषाय ही बाधक होती है । इसीसे स्पष्ट है कि वे सातिशय परिणाम हैं। उन्हे कषायकी मन्दतारूप कहना अध्यात्मके विरुद्ध तो है ही, करणानुयोग भी इसे स्वीकार नहीं Ple+
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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