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________________ जैनत्तत्वमीमांसा __ यथा गतिपरिणतो प्रभंजनः वैजयन्तीनां मतिपरिणामस्य हेतुकर्ताऽवलोक्यते न धर्मः। स खलु निष्क्रियत्यान्न कदाचिदपि गतिपरिणाममेवापद्यते, कुतोऽस्य सहकारित्वेन परेषा गतिपरिणामस्य हेतुकर्तृत्वम् । गाथा ८८ । जिस प्रकार गतिपरिणत वायु ध्वजाओंके गतिपरिणामका हेतुकर्ता देखा जाता है, धर्म द्रव्य नही । वह वास्तवमें निष्क्रिय होनेसे कभी भी गतिपरिणामको नहीं प्राप्त होता, इसलिये इसका सहकारीपनेरूपसे दूसरोंके गतिपरिणामका हेतु कर्तृत्व कैसे हो सकता है। ___ यह ब्यवहारसे प्रेरक निमित्तोका एक उदाहरण है। लोकमें ऐसे हजारों उदाहरण देखे जाते हैं, इसलिये इन सब उदाहरणोंको देखते हुए यह सिद्ध होता है कि जहाँ पर निष्क्रिय पदार्थोके समान सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे उदासीन निमित्त होते हैं वहाँ तो प्रत्येक कार्य अपने-अपने विवक्षित निश्चय उपादानके अनुसार ही होता है और जहाँ पर सक्रिय पदार्थ व्यवहारसे प्रेरक निमित्त होते है वहाँ पर प्रत्येक कार्य निश्चय उपादानसे होकर भी जब जैसे व्यवहारसे प्रेरक निमित्त मिलते हैं वहाँ पर प्रत्येक कार्य उनके अनुसार होता है। व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंके अनुसार कार्य होते हैं इसका यह तात्पर्य नहीं हैं कि गुण-पर्यायरूप प्रत्येक उपादानभूत वस्तु अपने स्वचतुष्ठ्यरूप स्वभावको छोड़कर व्यवहारसे प्रेरक निमित्तरूप परिणम जाती है। क्योकि स्वका उपादान और अन्य का अपोहन करके रहना यह प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व है। किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि उस समय व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंमें जिस प्रकारके कार्योंमे प्रेरक निमित्त होनेकी योग्यता होती है, कार्य उसी प्रकारके होते हैं, निश्चय उपादानके अनुसार नहीं होते। अकाल मरण या इसी प्रकारके जो दूसरे कार्य कहे गये है उनकी सार्थकता व्यवहारसे प्रेरक निमित्तोंका उक्त प्रकारसे कार्योंका होना माननेमें ही है। आगममें अकालमरण, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण जैसे कार्यो को स्थान इसी कारणसे दिया गया है। ५ व्यवहाराभासियोंके कथनका निरसन यह ऐसे व्यवहाराभासियोंका कथन है जो किसी विशिष्ट प्रयोजन वश सम्यक नियतिका खण्डन करनेके लिये कटिबद्ध है। और जिन्होंने अपना लक्ष्य एकमात्र यही बना लिया है कि अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिए कहीं पर आगमको गौण कर और कहीं पर आगमके अर्थमें परिवर्तन कर आगमके नाम पर अपने कथनको पुष्ट करते रहना है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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