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________________ जैनतत्त्वमीमांसा और यह इसका कारण है यह व्यवहार तो दोनों हेतुओंपर समानरूप से लागू होता है । मात्र बाह्य हेतु और कार्य इनमें निमित्त नैमित्तक भाव जहाँ असद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है वहाँ निश्चय उपादान और कार्य इनके मध्य निमित्त-नैमित्तक भाव सद्भूत व्यवहारनयसे घटित होता है। शंका-जब कार्यके साथ निश्चय उपादानका सम्बन्ध सद्भूत व्यवहारनयसे घटित किया जाता है तो उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण क्यों दिया गया है? समाधान-यतः प्रत्येक निश्चय उपादानमें प्रत्येक कार्यके प्रति स्वरूपसे हेतुता विद्यमान है, अतः उपादानके पूर्व उसे निश्चय विशेषण दिया गया है। ४. व्यवहाराभासियोंका कथन ____ यह वस्तुस्थिति है। इसके ऐसा होते हुए भी अपने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, तर्क और अनुभवको प्रमाण मानकर तथा साथ ही आगमकी दुहाई देते हुए एक ऐसे नये मतका बुद्धिपूर्वक प्रचार किया जा रहा है कि अव्यवहित पूर्व समयवर्ती द्रव्य अनेक शक्तिसम्पन्न होता है, इसलिये कब कौन कार्य हो यह बाह्य सामग्री पर अवलम्बित है और उसका कोई नियम नही कि कब कैसी बाह्य सामग्री मिलेगी, इसलिये जब जैसी सामग्री मिलती है, कार्य उसके अनुसार होता है, अतः कार्यका नियामक बाह्य निमित्त ही होता है, उक्त उपादान नही। इसके साथ ही बुद्धिपूर्वक एक ऐसे मतका भी प्रचार किया जा रहा है कि प्रत्येक द्रव्यकी शुद्ध पर्याय तो नियत क्रमसे ही होती है, किन्तु अशुद्ध पर्यायके सम्बन्ध में ऐसा कोई नियम नही है। वे नियत क्रमसे भी होती है और नियत क्रमको छोड़कर आगे-पीछे भी होती है। ____ इस विषयको और स्पष्ट करते हुए उनका कहना है कि जब कि आगममें उदासीन बाह्य निमित्त और प्रेरक बाह्य निमित्तोंका पृथक्पथक् उल्लेख दृष्टिगोचर होता है तो दोनोंको एक कोटिमें बिठलाना ठीक नहीं है । हमारा यह कहना नहीं कि जो-जो क्रियावान् पदार्थ हैं वे सब प्रेरक निमित्त ही होते हैं। उदाहरणार्थ चक्षु इन्द्रिय कियावान् पदार्थ होकर भी रूपोपलब्धिमें प्रेरक बाह्य निमित्त नहीं है। वह उसी प्रकारसे रूपोपलब्धिमें व्यवहार हेतु है जैसे गति करते हुए जीवों और पुद्गलोंकी गति क्रियामें धर्मद्रव्य या ठहरते हुए जीवों और पुद्गलोंके
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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