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________________ निश्चयउपादान - मीमांसा जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो य जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी ॥ १४६ ॥ ९९ जिसके जीवन में मिथ्यात्वकी सत्ता नही है तथा जिसका उपयोग राग, द्वेष और मन, वचन, कायरूप परिणतिको नही अनुभव रहा है उसीके शुभाशुभ भावोंको दहन करनेमें समर्थ ध्यानरूपी अग्नि उदित होती है ॥ १४६ ॥ जिसे यहाँ स्वानुभूति, शुद्धोपयोग या ध्यान कहा है उसीका दूसरा नाम स्वद्रव्यप्रवृत परिणाम भी है, स्वाश्रित निश्चयनय भी यही है । पराश्रित परिणाम इससे भिन्न है जिसे आगममें परद्रव्य-प्रवृत्त परिणाम भी कहते हैं, जो अज्ञानका दूसरा नाम है । समयसार गाथा २ में जो स्वसमय और परसमयका स्वरूप निर्देश किया गया है वह भी उक्त तथ्यको ध्यान मे रखकर ही किया गया है । शंका- सम्यग्दृष्टि और तत्पूर्वक व्रतीके सविकल्प भूमिकामें जो रागपूर्वक कार्य देखे जाते हैं सो उस समय उनके वे परिणाम परद्रव्यप्रवृत्त माने जायँ या नहीं ? समाधान -- सम्यग्दृष्टि या तत्पूर्वक व्रतीके राग परिणति तथा मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति मात्र ज्ञेय है, वह उनका कर्ता नही, क्योंकि ज्ञानी के बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष और मोहका अभाव होनेसे जो उसके रागपूर्वक प्रवृति देखी जाती है या कर्मबन्ध होता है वह अबुद्धिपूर्वक रागादि कलंकका सद्भाव होनेसे ही होता है । इस प्रकार इस समग्र कथनका सार यह है कि जो अपने स्वसहाय होनेसे अनादि-अनन्त, नित्य उद्योतरूप और विशद-ज्योति ज्ञायक भाव के सन्मुख होता है उसके मोक्षमार्गके सन्मुख होने पर उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है और जो अपने उक्त स्वभावभूत ज्ञायक भावको भूलकर संसार मार्गका अनुसरण करता है उसका उपादान भी उसीके अनुकूल प्रवृत्त होता है। ऐसी सहज वस्तु व्यवस्था है जिसे बाह्य सामग्री अन्यथा करनेमें समर्थ नहीं है । इतना विशेष है कि जो जीव मोक्षमार्गके सन्मुख होता है उसके निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका योग स्वयं मिलता है, बुद्धिका व्यापार उसमें प्रयोजनीय नहीं और जो जीव संसार मार्गके सन्मुख होता है उसके निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीका कभी अबुद्धिपूर्वक योग मिलता है और कभी बुद्धिपूर्वक योग मिलता है। ऐसा ही अनादि कालसे चला आ रहा नियम है । विशेषु किमधिकम् ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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