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________________ जैनतत्त्वमीमांसा चय हो मनुष्य जन्म पा अन्तमें मोक्षका अधिकारी बनता है और इस दृष्टिसे शुभोपयोग मोक्षका परम्परा कारण है ऐसा माना जाय तो क्या आपत्ति है ? समाधान--यहाँ भी पिछले मनुष्य जन्मके रत्नत्रयसे लेकर मोक्ष प्राप्त होने तकका रत्नत्रय एक ही है, मात्र इस दृष्टिको सामने रखकर ही उसके साथ बुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक वर्तनेवाले शुभरागको मोक्षका परम्परा व्यवहार कारण कहा जा सकता है। वास्तवमें देखा जाय तो शभोपयोगके कालमें जो सम्यग्दर्शनादि रूप स्वभाव पर्याय होती है या अवुद्धि पूर्वक प्रशस्त रागके कालमें जो स्वानुभूति और शुद्धोपयोग होता है उस शभोपयोग और अवुद्धिपूर्वक प्रशस्त रागको ही स्वभाव परिणतिका व्यवहारसे निमित्त कहा गया है, क्योकि ज्ञानधारा जब तक सम्यक रूपसे परिपाकको प्राप्त नही होती है तभी तक ज्ञानधारा और कर्मधाराके एक साथ होनेको आगम स्वीकार करता है। इन सब दृष्टियोंको ध्यानमें रखकर यह कलश काव्य दृष्टव्य है यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्य सम्यङ् न सा कर्म-ज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित् क्षति.। किन्त्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत् कर्मबन्धाय तत् मीक्षाय स्थितमेकमेव परम ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥११०॥ जब तक ज्ञानको कर्मविरति भलीभॉति परिपूर्णताको प्राप्त नही होती तब तक ज्ञान और कर्मका एक साथ रहना आगम सम्मत है, इससे आत्माकी कोई क्षति नही होती अर्थात् उस कालमें सम्यग्दर्शनदि परिणाम शद्धिके अनुसार यथावत् बने रहते है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इस भूमिकामे भी आत्मामे अवशपने (पुरुषार्थकी हीनतावश) जो कर्म प्रकट होता है वह तो बन्धका कारण है और स्वतः विमुक्त स्वभावमात्र जो परम ज्ञान है वह मोक्षका कारण है ।।११०॥ तात्पर्य यह है कि कर्मधारा स्वतः बन्धस्वरूप है, इसलिये वह बन्ध का हेतु है और ज्ञानधारा स्वयं मोक्षस्वरूप है, इसलिये वह मोक्षका शुद्ध आत्मस्वरूपमें अचलरूपसे जो चैतन्य परिणति होती है उसीका नाम ध्यान है, क्योंकि स्वानुभूति कहो, शुद्धोपयोग कहो या निश्चय ध्यान कहो इन तीनोंका एक ही अर्थ है। जीवके ऐसा ध्यान कब होता है इसका निर्देश करते हुए आचार्यदेव कुन्द-कुन्द पंचास्तिकायमें कहते हैं
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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