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________________ ८७ निश्चयउपादान-मीमांसा समर्थस्य कारणस्य कार्यवत्वमेवेति चेत् ? न, तस्येहाविवक्षितत्त्वात् ।। शंका-समर्थ कारण कार्यवाले ही होते हैं ? समाधान-पूर्वका लाभ होनेपर उत्तरका लाभ भजनीय है इत्यादि वचन आचार्यने समर्थ उपादान कारणको गौण कर ही कहा है, क्योंकि इस कथनमें समर्थ उपादानकी अपेक्षा कथन करनेकी विवक्षा नहीं की गई है। समर्थ उपादान किसे कहा जाय इसकी चर्चा भी आचार्य विद्यानन्दने की है। वे लिखते हैं विवक्षितस्वकार्यकरणेऽन्त्यक्षणप्राप्तत्वं हि सम्पूर्णम् । विविक्षत अपने कार्यके करनेमें जो उपादान अन्त क्षणको प्राप्त होता है उसीको सम्पूर्ण उपादान कारण कहा जाता है। विचार कर देखा। जाय तो इसीकी समर्थ उपादान कारण संज्ञा भी है और इमीको निश्चय उपादान कारण भी कहा गया है । __ इतने विवेचनसे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि आगममे विवक्षित कार्यसे अव्यवहित पूर्ववर्ती वस्तुको जो निश्चय उपादान कारण कहा गया है वह समर्थ उपादान कारणको लक्ष्यमे रखकर ही कहा गया है। अतः जो व्यवहाराभासवादी महाशय ऐसे उपादानको अनेक योग्यतावाला बतलाकर मात्र व्यवहार हेतुका कार्यकारीरूपसे समर्थन करते हैं उनका वह कथन तर्कसंगत तो है ही नहीं, आगमविरुद्ध भी है । २ अब आगे आगमके कतिपय ऐसे प्रमाण उपस्थित किये जाते है जिनको लक्ष्यमें लेनेसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि व्यवहार हेतु अदलते-बदलते रहते हैं, फिर भी अपने निश्चय उपादानके अनुसार कार्य वही होता है । यथा (क) सर्वार्थसिद्धि अ० २ सू० १० में भावपरिवर्तनके स्वरूपका निर्देश करते हुए बतलाया है कि समझो कोई एक संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, मिथ्यादृष्टि जीव अपने योग्य ज्ञानावरणकी जघन्य स्थितिका बन्ध कर रहा है तो उसके उस स्थितिबन्धके व्यवहार हेतु जो स्थिति अध्यवसान स्थान होते हैं वे असंख्यात लोकप्रमाण होकर भी एक समयमें उनमेंसे कोई एक उस जघन्य स्थितिबन्धका हेतु होता है। उनमेंसे यही उस जधन्य स्थितिबन्धका व्यवहार हेतु हो ऐसा कोई एकान्त नियम नहीं
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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