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________________ जैनतत्व-मीमांसा तथा पतत्रिप्रभृति द्रव्यं गति-स्थितिपरिणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुख नान्तरेण बाह्यानेककारणसन्निधि गति स्थिति वा प्राप्तुमलमिति । तदनुपाहककारणधर्माधर्मास्तिकायसिद्धि । त वा. ५-१२ पृ० २१४ । जिस प्रकार घटकार्यरूप परिणामके प्रति आभ्यन्तर सामर्थ्यसे सम्पन्न मिट्टीका पिण्ड बाह्य कुम्भकार, दण्ड, चक्र, सूत्र, जल, काल और आकाश आदि अनेक उपकरण सापेक्ष घटपर्यायरूपसे प्रकट होता है। अकेला मिट्टीका पिण्ड कुलालादि बाह्य साधनोंकी सन्निधिके बिना घटरूपसे उत्पन्न होनेके लिए समर्थ नही है। उसी प्रकार पक्षी आदि द्रव्य गति और स्थितिरूप परिणामकी प्राप्तिके प्रति सन्मुख होता हुआ बाह्य अनेक कारणोकी सन्निधिके बिना गति और स्थिति प्राप्त करनेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये गति और स्थितिके अनुग्राहक धर्म और अधर्म द्रव्यकी सिद्धि होती है। निश्चय उपादान कार्योंका नियामक नही होता, इस मतके समर्थनमे कुछ व्यवहाराभासियोंका यह दृष्टिकोण है। अतः इस विषय पर साङ्गोपाङ्ग विचार कर लेना आवश्यक प्रतीत होता है। यथा (१) समर्थ उपादान कारण किसे कहा जाय और असमर्थ उपादान कारण क्या है इसकी चर्चा तत्त्वार्थ श्लोक वात्तिकमे शंका-समाधानके प्रसंगसे हम कर आये है। तत्त्वार्थकार्तिकमें 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इन तीनोंकी एकता मोक्षमार्ग है' इस सूत्रकी व्याख्या करते हुए कहा है एषा पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् ।२८। उत्तरलाभे तु नियत पूर्वलाभ ।२९। इन सम्यग्दर्शनादि तीनोमेंसे पूर्व की प्राप्ति होनेपर उत्तरकी प्राप्ति - भजनीय है। किन्तु उत्तरकी प्राप्ति होनेपर पूर्वको प्राप्ति नियत है ॥२८, २९॥ ____ इसी सरणिका अनुसरण कर तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकमें यह वचन आया है तत एवोपादानस्य लाभे नोत्तरस्य नियता लाभ , कारणानामवश्य कार्यवत्त्वाभावात् । ___इसीलिये ही उपादानका लाभ होनेपर उत्तरका लाभ नियत नहीं है, क्योंकि कारण अवश्य ही कार्यवाले होते है ऐसा नहीं है। किन्तु आचार्य ने यह कथन व्यवहार उपादानको ध्यानमें रख कर ही किया है, क्योंकि इससे आगे वे स्वयं समर्थ उपादानका समर्थन करते हुए शंका-समाधान करते हुए लिखते हैं
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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