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________________ ७२ जैनतत्त्वमीमांसा आती है वह पूर्वोक्त अन्य पर्यायोंको प्राप्त हुए बिना घट पर्यायरूपसे परिणत नहीं हो सकती । इससे मालूम पड़ता है कि केवल मिट्टी को घट का उपादान कारण कहना द्रव्यार्थिक नयका कथन है । वस्तुतः घटकी उत्पत्ति अमुक पर्याय विशिष्ट मिट्टीसे होती है, जिस अवस्थामें मिट्टी खानसे आती है उस अवस्थाविशिष्ट मिट्टीसे नहीं। अतएव इस अपेक्षासे घटका निश्चय उपादान कारण विवक्षित अवस्था विशिष्ट मिट्टी ही होती है, अन्य अवस्था विशिष्ट मिट्टी नहीं। __ इस विषयको स्पष्ट करनेके लिए दूसरा उदाहरण हम जीवका ले सकते है । मुक्त अवस्था जीवको स्वाश्रित पर्याय है, क्योंकि मुक्त अवस्था में जीबका अन्वय देखा जाता है। इसलिए द्रव्याथिक नयसे मुक्त अवस्था का उपादान कारण जीव कहा जाता है। परन्तु यदि केवल जीवसे मुक्त अवस्था उत्पन्न होने लगे तो निगोदिया जीवको भी उस पर्यायके बाद मुयत अवस्था उत्पन्न हो जानी चाहिए। निगोद अवस्था और मुक्त अवस्थाके बोचमें जो दूसरी अनेक पर्याय दृष्टिगोचर होती हैं वे नहीं होनी चाहिए। माना कि इन दोनों अवस्थाओंके बीच कम या अधिक जो दूसरी पर्यायें होती है वे सब जीवमय हैं। परन्तु जो जीव निगोदसे निकलता है वह पूर्वोक्त ससारकी अन्य पर्यायोंको प्राप्त हुए बिना मुक्त अवस्थाको नहीं प्राप्त होता । इससे मालूम पड़ता है कि केवल जीवको मुश्त अवस्थाका उपादान कारण कहना द्रव्याथिकनयका वक्तव्य है। वस्तुत मुक्त अवस्थाकी उत्पत्ति अन्तिम क्षणवर्ती अयोगिकेवली अवस्था विशिष्ट जीवसे ही होती है। इसके पूर्व क्रमसे सयोगिकेवली, क्षीणकषाय, सूक्ष्मसाम्पराय, अनिवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थागर्भ प्रचुर अवस्थाएँ नियमसे होती है। अप्रमत्तसंयत अवस्थाके पूर्व कौन-कौन अवस्थाएँ हों इनका नाना जीवोंकी अपेक्षा एक नियम नहीं है। अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार दूसरी-दूसरी अवस्थाएँ यथासम्भव होती हैं। जिस प्रकार सब पुद्गल घट नहीं बनते उसी प्रकार यह भी नियम है कि सब जीव इन अवस्थाओको प्राप्त नहीं होते। जो निकट भव्य हैं वे ही अपने-अपने निश्चय उपादानके अनुसार यथा १ इसके लिए देखो अष्टसहस्री श्लोक १० की टोका । यहाँ पर व्यवहारनय (द्रव्याथिक नय) से मिट्टीको घटका उपादान कहा है, ऋजुसूत्रनयसे पूर्व पर्यायको घटका उपादान कहा है तथा प्रमाणसे पूर्व पर्यायविशिष्ट मिट्टीको घट का उपादान कहा है।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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