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________________ बाझकारणमीमांसा में आकर इसने इस अवस्थाको प्राप्त किया है यह मुख्य नहीं हैं, मुख्य । उसका सकार है कि उसका काय स्वभावकी ओर ले गास पर परको डोर।जब विभाव या स्वभावकी ओर झुकाव रहता है तब निश्चय उपादान भी उनके अनुकूल रहता है । ऐसा ही अन्वय-व्यतिरेक है। शंका-जैसे मिट्टीमें जिस प्रकार कुम्भ निर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है उसी प्रकार कुम्भकार व्यक्तिमें भी कुम्भ निर्माणका कर्तृत्व विद्यमान है। फरक यह है कि मिट्टी कुम्भरूप परिणत होती है और कुम्भकार कुम्भरूप परिणत होनेमें सहायक होता है। समाधान-मिट्टी कुम्भकी स्वरूपसे कर्ता है, कुम्भकार स्वरूपसे कर्ता नहीं है, क्योंकि कुम्भकारमें कुम्भ कार्यके कर्तृत्व गुणका अत्यन्त अभाव है। मात्र उसमें प्रयोजनवश कर्तृत्वका उपचार किया जाता है । अतएव मिट्टी कुम्भरूप केवल परिणत ही नहीं होती, किन्तु परिणमन करती है। कुम्भकार मिट्टीके घट कार्यका वास्तवमें सहायक नहीं होता है, सहायक होता है ऐसा व्यवहारसे कहा जाता है । और ऐसे व्यवहार का कारण कुम्भकार का योग और विकल्प है। शंका-पहले आपने शुद्ध आत्माका अर्थ अकेला परनिरपेक्ष एकरूप किया है, सो इसे और अधिक स्पष्ट कीजिये ? समाधान-समयसार गाथा ३८ की आत्मख्याति टीकामें शुद्ध शब्द का अर्थ करते हुए बतलाया है नर-नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापात्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्वेभ्यष्टकोत्कीर्णज्ञायकस्वभावभावेनात्यन्तविवक्तत्वाच्छुद्ध. । मै नर-नारकादि जीव विशेष, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा बन्ध और मोक्षस्वरूप व्यावहारिक नौ तत्त्वोसे टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक स्वभावरूप भावके द्वारा अत्यन्त भिन्न हूँ, इसलिये शुद्ध हूँ। मोक्षमार्गीके लिये एकमात्र स्वतःसिद्ध, अनादि-अनन्त, नित्य उद्योतस्वरूप और विशद ज्ञान-दर्शन ज्योतिस्वरूप एक ज्ञायक भाव ही अनुभवने योग्य है इस तथ्यको स्पष्ट करनेके लिये शुद्ध शब्दका उक्त अर्थ किया गया है। ___ कर्ता-कर्मभावके विकल्पसे मुक्त करनेकी दृष्टिसे शुद्ध शब्दके अर्थको स्पष्ट करते हुए गाथा ७३ आत्मख्याति टीकामें आचार्यदेव कहते हैं समस्तकारकचकनियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुखः ।
SR No.010314
Book TitleJain Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherAshok Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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