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________________ संक्षिप्त अनुमान-विवेचन : ४॥ नाभाव और ब्याप्ति दोनों शब्दोंका प्रयोग किया है। सिद्धसेन', पात्रस्वामी, कुमारनन्दि अकलंक' माणिक्यनन्दि' आदि जैन तर्कग्रन्थकारोंने अविनाभाव, व्याप्ति और अन्यथानुपपत्ति या अन्यथानुपपन्नत्व तीनोंका व्यवहार पर्यायशब्दोंके रूपमें किया है। जो ( साधन ) जिस ( साध्य )के बिना उपपन्न न हो उसे अन्यथानुपपन्न कहा गया है। असम्भव नहीं कि शाबरभाष्यगत' अर्थापत्त्युस्थापक अन्यथानुपपद्यमान और प्रभाकरको बृहतीमें उसके लिए प्रयुक्त अन्यथानुपपत्ति शब्द अर्थापत्ति और अनुमानको अभिन्न मानने वाले जैन ताकिकोंसे अपनाये गये हों, क्योंकि ये शब्द जैन न्यायग्रन्थोंमें अधिक प्रचलित एवं प्रयुक्त मिलते हैं और शान्तरक्षित आदि प्राचीन तार्किकोंने उन्हें पात्रस्वामीका मत कह कर उद्धृत तथा समालोचित किया है । अतः उनका उद्गम जैन तर्क ग्रन्थोंसे बहुत कुछ सम्भव है। प्रस्तुत अनुशीलनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि न्याय वैशेषिक और बौद्ध दर्शनोंमें आरम्भमें पक्षधर्मता ( सपक्षसत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति सहित ) को तथा मध्यकाल और नव्ययुगमें पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोंको अनुमानका आधार माना गया है। पर जैन ताकिकोंने आरम्भसे अन्त तक पक्षधमंता { अन्य दोनों रूपों सहित ) को अनावश्यक तथा एकमात्र व्याप्ति ( अविनाभाव, अन्यथानुपपन्नत्त्व ) को अनुमानका अपरिहार्य अंग बतलाया है। अनुमान-भेद : प्रश्न है कि यह अनुमान कितने प्रकारका माना गया है ? अध्ययन करनेपर प्रतीत होता है कि सर्वप्रथम कणादने अनुमानके प्रकारोंका निर्देश किया है। उन्होंने उसको कण्ठतः संख्याका तो उल्लेख नहीं किया, किन्तु उसके प्रकारोंको १. न्यायाव० १३, १८, २०, २२ । २. तत्त्वसं० पृ० ४०६ पर उद्धृत 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि का० । ३. प्र० प० पृ. ७२ में उद्धृत 'अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं' आदि कारि० । ४. न्या० वि० २११८७, ३२३, ३२७, ३२६ ।। ५. परो० मु० ३।११, १५, १६, ९४, ९५, ६६ । ६. साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं-1-न्यायवि० २।६६, तथा प्रमाणसं० २१ । ७. अर्थापत्तिरपि दृष्टः श्रुतो वार्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना । -शाबरभा० ११११५, बृहती, पृष्ठ ११० । ८. केयमन्यथानुपपत्तिर्नाम ? .."न हि अन्यथानुपपत्तिः प्रत्यक्षसमधिगम्या । -बृहती पृ० ११०, १११ । ६. तत्त्वसं० पृ० ४०५-४०८ । १०. वैशे सू० ६।२।१।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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