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________________ ४० : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार 'अव्यभिचरित सम्बन्ध' दे करके भी शंकर मिश्र द्वारा किये गये अविनाभाव के खण्डनसे सहमति प्रकट की है और 'वस्तुतस्त्वनौपाधिकसम्बन्ध एव व्याप्तिः " इस उदयनोक्त व्याप्तिलक्षणको ही मान्य किया है । इससे प्रतीत होता है कि अविनाभावको मान्यता वैशेषिकदर्शनको भी स्वोपज्ञ एवं मौलिक नहीं है । कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकमें 3 व्याप्ति और अविनाभाव दोनों शब्द मिलते हैं । पर उनके पूर्व न जैमिनिसूत्रमें वे हैं और न शावर भाष्य में । बौद्ध तार्किक शंकरस्वामी के न्यायप्रवेश में भी अविनाभाव और व्याप्ति शब्द नहीं हैं । पर उनके अर्थका बोधक नान्तरीयक ( अनन्तरीयक ) शब्द पाया जाता है । धर्म कोर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट आदि बौद्ध नैयायिकोंने अवश्य प्रतिबन्ध और नान्तरीयक शब्दोंके साथ इन दोनोंका भी प्रयोग किया है । इनके पश्चात् तो उक्त शब्द बौद्ध तर्कग्रन्थोंमें बहुलतया उपलब्ध हैं । तब प्रश्न है कि अविनाभाव और व्याप्तिका मूल स्थान क्या है ? अनुसन्धान करने पर ज्ञात होता है कि प्रशस्तपाद और कुमारिलसे पूर्व जैन तार्किक समन्तभद्रने, जिनका समय विक्रमकी २री, ३री शती माना जाता है, अस्तित्वको नास्तित्वका और नास्तित्वको अस्तित्वका अविनाभावी बतलाते हुए अविनाभावका व्यवहार किया है। एक दूसरे स्थल पर " भी उन्होंने उसे स्पष्ट स्वीकार किया है । और इस प्रकार अविनाभावका निर्देश मान्यताके रूपमें सर्वप्रथम समन्तभद्रने किया जाना पड़ता है । प्रशस्तपादकी तरह उन्होंने उसे त्रिलक्षणरूप स्वीकार नहीं किया । उनके पश्चात् तो वह जैन परम्परामें हेतुलक्षणरूप में ही प्रतिष्ठित हो गया । पूज्यपादने ", जिनका अस्तित्व - समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दी है, अवि १. प्र० भा० टिप्प० पृष्ठ १०३ । २. किरणा० पृ० २६७ । ३. मी० श्लोक अन० खं० श्लो०४, १२, ४३ तथा १६१ । ४. न्या० प्र० पृष्ठ ४, ५ । ५. प्रमाणत्रा० १ ३, १ ३२ तथा न्यायबि० पृ० ३०, ९३ । हेतुबि० पृ० ५४ । ६. न्यायबि० टी० पृष्ठ ३० । ७. हेतु बि० टी० पृष्ठ ७,८,१०,११ आदि । ८. श्री जुगलकिशोर मुख्तार, स्वामी समन्तभद्र पृष्ठ १९६ । ६. अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधमिणि । नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि । - आप्तमी० का १७,१८ । १०. धर्मघम्यविनाभावः सिद्धयत्यन्योन्यवीक्षया । – वही, का० ७५ । ११. स० सि० ५१८, १०/४ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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