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________________ अनुमानका विकास-क्रम : १७ उसमें प्रयुक्त व्याप्ति और पक्षधर्मता पदोंका उन्होंने सर्वथा अभिनव तथा विस्तृत स्वरूप प्रदर्शित किया है । व्याप्तिग्रहके साधनोंमें सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्तिपर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया है । उनका अभिमत है कि यदि सामान्यलक्षणा न हो तो अनुकूल तर्कादिकके बिना धूमादिमें आशंकित व्यभिचार नहीं बन सकेगा, क्योंकि प्रसिद्ध धूममें वह्निसम्बन्धका ज्ञान हो जानेसे कालान्तरीय एवं देशान्तरीय धूमके सद्भावका साधक प्रमाण न होनेसे उसका ज्ञान नहीं होता । सामान्यलक्षणा द्वारा तो समस्त घूमोंको उपस्थिति हो जाने और धूमान्तरका विशेष दर्शन न होने से व्यभिचारकी आशंका सम्भव है । तात्पर्य यह कि व्यभिचारशंकाके लिए सामान्यलक्षणाका मानना आवश्यक है और व्यभिवारशंकाके होने पर ही तर्कादिकी उपयोगिता प्रमाणित होती है । इसी प्रकार गंगेशने अनुमानके सम्बन्धमें मौलिक विवेचन नव्यन्यायके आलोकमें कर नये सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं । विश्वनाथ, जगदीश तर्कालंकार, मथुरानाथ तक वागीश, गदाधर आदि नव्यनैयायिकोंने भी अनुमानपर बहुत ही सूक्ष्म विचार करके उसे समृद्ध किया है। केशव मिथकी तर्कभाषा और अन्नम्भट्टकी तकर ग्रह प्राचीन और नवीन न्यायकी प्रतिनिधि तकृतियाँ हैं जिनमें अनुमानका सुबोध और सरल भाषामें विवेचन उपलब्ध है। ( ख ) वैशेषिक-परम्परामें अनुमानका विकास वैशेषिकदर्शनमूत्रप्रणेता कणादने स्वतन्त्र दर्शनका प्रणयन करके उसमें पदार्थाको सिद्धि ( व्यवस्था ) प्रत्यक्षके अतिरिक्त लैंगिक द्वारा भी प्रतिपादित की है और हेतु, अपदेश, लिंग, प्रमाण जैसे हेतुवाची पर्याय-शब्दोंका प्रयोग तथा कार्य, कारण, संयोगि, विरोघि एवं समवाय इन पांच लैंगिकप्रकारों और त्रिविध हेत्वाभासोंका निर्देश किया है। उनके इस मंक्षिप्त अनुमान-निरूपणमें अनुमानका सूत्रपात मात्र दिखता है, विकसित रूप कम मिलता है। पर उनके भाष्यकार प्रशस्तपादके भाष्यमें अनुमान-समीक्षा विशेष रूपमें उपलब्ध होती है । अनुमानका १. नन्वनुमितिहेतुव्याप्तिशाने का व्याप्तिः । न तावदन्यभिचरितत्वम् । 'नापि । अत्री च्यते । प्रतियोग्यसमानाधिकरण्ययत्समानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियागितावच्छद कावच्छिन्नं यन्न भवति तेन समं तस्य सामानाधिकरण्यं व्याप्तिः । -त. चि० अनुमान लक्षणं, पृष्ठ ७७, ८६, १७१, १७८, १८१, १८६-२०६ । २. वही, पृष्ठ ६३१ ३. व्याप्तिग्रहश्च सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्या सकलधूमादिविषयकः। यदि सामान्यलक्षणा नास्ति तदा..... -वही, पृष्ठ ४३३, ४५३ । ४. वैशेषिक द० १०११॥३, तथा ६।२।१,४ । ३
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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