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________________ १६ : जैन तर्कशास्त्र में अनुमान- विचार न्यायदर्शनमें अविनाभावका सर्वप्रथम स्वीकार या पक्षधर्मत्वादि पाँच रूपोंके अविनाभावद्वारा संग्रहका विचार उन्हींके द्वारा प्रविष्ट हुआ है। लिंग-लिंगीके सम्बन्धको स्वाभाविक प्रतिपादन करना और उसे निरूपाधि अंगीकार करना उन्हीं की सूझ है । जयन्तभट्टका भी अनुमानके लिए कम महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं है । उन्होंने न्यायमंजरी और न्यायकलिकामें अनुमानका सागोपांग निरूपण किया है । वे स्वतन्त्र चिन्तक भी रहे हैं । यहाँ हम उनके स्वतन्त्र विचारका एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । न्यायमंजरी में हेत्वाभासों के प्रकरण में उन्होंने अन्यथासिद्धत्व नामके एक छठे हेत्वाभासको चर्चा की है । सूत्रकारके उल्लंघनकी बात उठने पर वे कहते हैं कि सूत्रकारका उल्लंघन होता है तो होने दो, सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक हेत्वाभासका अपह्नव नहीं किया जा सकता । पर अन्त में वे उसे उद्योतकर की तरह असिद्धवर्ग में अन्तर्मूर्त कर लेते हैं । ' अथवा ' के साथ यह भी कहा है कि अप्रयोजकत्व ( अन्यथासिद्धत्व ) सभी हेत्वाभासवृत्ति अनुगत सामान्यरूप है । न्यायfor भी यही मत स्थिर किया है । समव्याप्ति और विषमव्याप्तिका निर्देश भी उल्लेखनीय है । अवयव - समीक्षा हेतुसमीक्षा आदि अनुमान-सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण हैं उदयनका चिन्तन सामान्यतया पूर्वपरम्पराका समर्थक है, किन्तु अनेक स्थलोंपर उनकी स्वस्थ और सूक्ष्म विचार-धारा उनकी मौलिकताका स्पष्ट प्रकाशन करती है । उपाधि और व्याप्तिकी जो परिभाषाएँ उन्होंने प्रस्तुत कीं, उत्तरकालमें उन्हींको केन्द्र बनाकर पुष्कल विचार हुआ है । अनुमान के विकास में अभिनव क्रान्ति उदयनसे आरम्भ होती है। सूत्र और व्याख्यापद्धति के स्थान में प्रकरण पद्धतिका जन्म होता है और स्वतन्त्र प्रकरणों द्वारा अनुमानके स्वरूप, आधार, अवयव, परामर्श, व्याप्ति, उपाधि हेतु एवं पक्ष - सम्बन्धी दोषोंका इस काल में सूक्ष्म विचार किया गया है । गंगेशने तत्त्वचिन्तामणिमें अनुमानकी परिभाषा तो वही दी है जो उद्योतकर ने न्यायवार्त्तिकमें उपस्थित की है, पर उनका वैशिष्ट्रय यह है कि उन्होंने अनुमिति की ऐसी परिभाषा प्रस्तुत की है जो न्यायपरम्परामें अब तक प्रचलित नहीं थी । १. न्यायमंजरी पृष्ठ १३१, १६३-१६६ । २. अप्रयोजकत्वं च सर्वहेत्वाभासानामनुगतं रूपम् । — न्यायक० पृष्ठ १५ ३. किरणावली ० पृष्ठ २६७ । ४. तत्र व्याप्तिविशिष्टपचधर्मताज्ञानजन्यं ज्ञानमनुमितिः, तत्करणमनुमानम् । - त० चि० अनुमानलक्षण, पृष्ठ १३ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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