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________________ १८ : जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार लक्षण प्रशस्तपादने इस प्रकार दिया है-'लिंगदर्शनासंजायमानं लैंगिकम्" अर्थात् लिंगदर्शनसे होनेवाले ज्ञानको लैंगिक कहते हैं । इसो सन्दर्भ में उन्होंने लिंगका स्वरूप बतलानेके लिए काश्यपकी दो कारिकाएँ उद्धृत की हैं जिनका आशय प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो अनुमेय अर्थ के साथ किसी देशविशेष या कालविशेषमें सहचरित हो, अनुमेयधर्मसे समन्वित किसी दूसरे सभी अथवा एक स्थानमें प्रसिद्ध ( विद्यमान ) हो और अनुमेयसे विपरीत सभी स्थानोंमें प्रमाणसे असत् (व्यावृत्त) हो वह अप्रसिद्ध अर्थका अनुमापक लिंग है। किन्तु जो ऐसा नहीं वह अनुमेयके ज्ञानमें लिंग नहीं है-लिंगाभास है । इस प्रकार प्रशस्तपादने सर्वप्रथम लिंगको त्रिरूप वर्णित किया है । बौद्ध तार्किक दिङ्नागने भी हेतुको त्रिरूप बतलाया है। सम्भवतः वह प्रशस्तपादका अनुसरण है। न्याप्तिग्रहणके प्रकारका निरूपण भी हम प्रशस्तपादके भाष्यमें सर्वप्रथम देखते हैं। उन्होंने उसे बतलाते हुए लिखा है कि 'जहाँ घूम होता है वहाँ अग्नि होती है और अग्नि न होने पर धूम भी नहीं होता, इस प्रकारसे व्याप्तिको ग्रहण करने वाले व्यक्तिको असन्दिग्ध घूमको देखने और धूम तथा वह्निके साहचर्यका स्मरण होनेके अनन्तर अग्निका ज्ञान होता है । इसी तरह सभी अनुमानोंमें व्याप्तिका निश्चय अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक होता है । अतः समस्त देश तथा कालमें साध्याविनाभूत लिंग साध्यका अनुमापक होता है।' व्याप्तिग्रहणके प्रकारका इस तरहका स्पष्ट निरूपण प्रशस्तपादसे पूर्व उपलब्ध नहीं होता। प्रशस्तपादने ऐसे कतिपय हेतुओंके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनका अन्तर्भाव सूत्रकार कणादके उक्त कार्यादि पंचविध हेतुओं में नहीं होता। यथा-चन्द्रोदयसे समुद्रवृद्धि और कुमुदविकासका, शरमें जलप्रसादसे अगस्त्योदयका अनुमान करना। अतएव वे सूत्रकारके हेतुकथनको अवधारणार्थक न मानकर 'अस्येदम्' १. प्रश० मा० पृष्ठ ११ । २,३. वही, पृष्ठ १००, १०१ । ४. हेतुस्त्रिरूपः। किं पुनस्त्रैरूप्यम् । पक्षक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वं विपक्षे चासत्वमिति । -न्यायप्र० पृ० १। ५. विधिस्तु यत्र घूमस्तत्राग्निरग्न्याभावे घूमोऽपि न भवतीति । एवं प्रसिद्धसमयस्यासन्दिग्ध घूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात् तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो भवतीति । एवं सर्वत्र देशकालाविनाभूतमितरस्य लिंगम् । -प्रश० भा० पृष्ठ १०२, १०३ ६. शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थ कृतं नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तयथा-व्यवहितस्य हेतुलिंगम्, चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धः कुमुदविकाशस्य च' ...."। वही, पृष्ठ १०४ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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