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________________ अनुमानका विकास-क्रम : १५ हुए कहते हैं कि यह तो मात्र प्रयोगभेद है और प्रयोगभेदसे वस्तु ( हेतु ) भेद नहीं हो सकता। अथवा वह केवल उदाहरणभेद है-आत्मा और घट । यदि उदाहरण-भेदसे भेद हो तो 'तथा वैधात्' यह सूत्र नहीं होना चाहिए, क्योंकि उदाहरणके भेदसे ही हेतुभेद अवगत हो जाता है और भेदक उदाहरणसूत्र 'तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम्' सूत्रकारने कहा ही है। अतः 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' यह वैधम्यं प्रयुक्त हेहुका उदाहरण ठीक नहीं है। किन्तु 'नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरं अप्राणादिमत्वसंगादिति' यह उदाहरण उचित है। इस प्रकार न्यायभाष्यकारकी मीमांसा सूत्रकारद्वारा प्रतिपादिन हेतुद्वयको पुष्टिमें हो की गयी है। अतएव उद्योतकर अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखते हैं कि परोक्त हेतुलक्षण सम्भव नहीं है, यही आर्ष ( सूत्रकारोक्त ) हेतुलक्षण संगत है । न्यायभाप्यकारके समय तक अनुमानावयवोंकी मान्यता दो रूपोंमें उपलब्ध होती है । (१ पंचावयव और (6) दशावयव । वात्स्यायनने दशावयवमान्यताकी मीमांसा करके गुत्रकार प्रतिपादित पंचावयवमान्यताको संपुष्टि की है। पर उद्योतकरने ३ त्र्यवयनमान्यताकी भी समीक्षा की है। यह मान्यता बौद्ध तार्किक दिङ्नागकी है, योकि दिङ्नागने हो अधिक-से-अधिक तीन अवयव स्वीकार किये है। सांख्य विद्वान् माटरने" भी अनुमानके तीन अवयव प्रतिपादित किये हैं। यदि माटर दिइनागसे पर्ववर्ती हैं तो त्र्यवयवमान्यता उनको समझना चाहिए। इस प्रकार कितनी ही स्थापनाओं और समीक्षाओंके रूपमें उद्योतकरकी उपलब्धियाँ हम उनके न्यायत्रातिकमे पाते हैं । ___ वाचस्पतिको भी अनुमान के लिए महत्त्वपर्ण देन है । व्याप्तिग्रहकी सामग्रीमें तकका प्रवेश उनकी एमी देन है जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी नैयायिकोंने किया है । उद्योतकरद्वारा प्रतिपादित 'लिंगपरामर्शरूप' अनुमान-परिभाषाका समर्थन करके उसे पुष्ट किया है। दो अवयवकी मान्यताका भी उल्लेख करके उसकी समीक्षा प्रस्तुत की है। यह दो अवयवकी मान्यता धर्मकीतिकी है। १. न्यायवा०, ११३५, पृष्ठ १३४ । २. न्यायभा० ११११३२, पृष्ठ ४७ । ३. न्यायवा० १११।३२, पृष्ठ १०८ । ४. न्यायप्रवेश पृष्ठ १, २ । ५. पक्षहेतुदष्टान्ता इति व्यवयवम् -माटर वृ० का० ५। ६. न्यायवा. ना. टो० १११५, पृष्ठ १६७, १७०, १७८, १६५ तथा १११:३२, पृष्ठ ६७। ७. 'अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नांगं प्रतिशोपनयनिगमनादि..." -वादन्याय० पृष्ठ ६१ किन्तु धर्मकोति, न्याविन्दु ( पृष्ठ ९१ ) में दृष्टान्तको हेतुसे पृथक् नहीं मानते और हेतुका ही साधनाबयव बतलाते हैं। प्रमाणवार्तिक (१-१२८) में भी 'हेतुरेव हि केवलः' कहते हैं।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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