SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० : जैन तर्कशास में अनुमान-विचार कथनकी बात कही है। उन्होंने यहांतक बल दिया है कि वास्तवमें वे सब हेतु दोष ही है, पक्षदोषों और दृष्टान्तदोषोंका पृथक् वर्णन केवल प्रपंचमात्र है। एकदूसरे स्थलपर भी वे उन्हें हेतुदोषोंका अनुविधायो होनेके कारण हेतुदोष हो बतलाते हैं और कहते हैं कि इसीसे सूत्रकारने हेत्वाभासोंकी तरह उनका पृथक् उपदेश नहीं किया। हमने उनका प्रदर्शन मात्र शिष्यहितके लिए किया है । उद्योतकरका मन्तव्य है कि साधकत्व हेतुका और असाधकत्व हेत्वाभासका विशेष धर्म है । तथा साधकत्वसे तात्पर्य समस्त लक्षणोंका सद्भाव और असाधकत्वसे मतलब असमस्त लक्षणोंका सद्भाव है । आशय यह कि उद्योतकर हेतुदोषोंको ही साध्यसिद्धिका प्रतिबन्धक मानते हैं, अन्य दोष तो उन्हीं में समा जाते हैं और वे प्रतिज्ञादिलक्षणसूत्रों द्वारा निरस्त हो जाते हैं। उद्योतकरका हेत्वाभाससम्बन्धी विस्तृत निरूपण विशेष उल्लेखनीय है। उन्होंने हेतु और हेत्वाभासोंके भेदोंका प्रपंच १७६ बतलाया है और उन्हें कुछ उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करके सूत्रकारके हेत्वाभास-पंचकमें ही संग्रहीत किया है। पुनः असिद्ध के ३८४, २०३२ और अनन्त भेदोंकी भी सूचना करके अनेकान्तिकके ६ और विरुद्ध के ४ भेदोंका भी उल्लेख किया है। बौद्ध-परम्परा: न्यायप्रवेशकारने यतः पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन ही साधन (परार्थानमान) के अवयव स्वीकार किये है, अक्षपादकी तरह पांच या कणादकी तरह एक नहीं, अतः साधनदोष भो उन्होंने तीन प्रकारके प्रतिपादित किये हैं-(१) पक्षाभास, ( २ ) हेत्वाभास और ( ३ ) दृष्टान्ताभास । उनका यह प्रतिपादन १. ये चैते प्रत्यक्षविरुद्धतादयः पक्षदोपाः, ये च वक्ष्यमाणा: साधनविकलत्वादयो दृष्टान्त दोषास्तं वस्तुस्थित्या सर्वे हेतुदोषा एव, प्रपंचमात्रं तु पक्षदृष्टान्तदोषवर्णनम् । -न्यायमं० पृ० १३३-१३४। २. एते च वस्तुवृत्तेन हेतुदोषा एव तदनुविधायित्वात, अत एव हेत्वाभासवत्सूत्रकृता नोपदिष्टाः, अस्माभिस्तु शिष्यहिताय प्रदर्शिता एव । -वही, पृ० १४० । ३. साधकत्वासाधकत्वे तु विशेष: हेतोः साधकत्वं धमोऽसाधकत्वं हेत्वाभासस्य। किं पुनस्तत् ? समस्तलक्षणोपपात्तरसमस्तलक्षणोपपत्तिश्च । -न्यायवा० ११२।४, पृ० १६३ । ४. वहो, ११२।४, पृ० १६४-१६९ । ५. पक्षहेतुदृष्टान्तवचनैहिं प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते । एतान्येव त्रयोऽवयवा इत्युच्यन्ते। -न्यायम. पृ० १-२ । ६. वहो, पृ०२-७।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy