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________________ इतर परम्परामों में अनुमानाभास-विचार : २४९ होना चाहिए-(१) प्रतिज्ञाभास, (२) हेत्वाभास, ( ३ ) उदाहरणाभास, (४) उपनयाभास और ( ५ ) निगमनाभास । परन्तु अक्षपादने इनमेंसे केवल हेत्वाभासोंका वर्णन किया है, प्रतिज्ञाभासादिका नहीं; यह चिन्त्य है ? विचार करनेपर प्रतीत होता है कि यदि प्रतिवादीके हेतुको हेत्वाभास प्रमाणित कर दिया जाए तो उसके द्वारा होनेवाली साध्य-सिद्धि प्रतिबन्धित हो जाती है और तब उसमें प्रतिज्ञादोष आदि दोषोंका उद्भावन निरर्थक है। उद्योतकरने' 'लाध्यनिर्देशः प्रतिज्ञा' इस न्यायमूत्रकार-वचन द्वारा द्विविध साध्यदोषों (सिद्ध और अनुपपद्यमानसाधन-असाध्यों) की निवृत्ति बतलाकर प्रतिज्ञादोषोंका संकेत उसीके द्वारा सूचित किया है। इसी प्रकार उदाहरण आदिके प्रतिपादक सूत्रोंके द्वारा उदाहरणादिदोष भी निरस्त किये गये हैं । अतएव उनका भी पृथक् प्रतिपादन आवश्यक नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि फिर हेतुप्रतिपादक सूत्रद्वयसे हेतुदोषोंका निराकरण सम्भव होनेसे हेत्वाभासोंका भी पृथक् कथन नहीं किया जाना चाहिए? इसका उत्तर यह है कि यथार्थ में हेतुप्रतिपादक मूत्रों द्वारा हेतुदोषोंका निरास हो जाता है फिर भी हेत्वाभासोंका जो पृथक अभिधान किया गया है वह शास्त्रार्थ में प्रतिवादीको पराजित करने के लिए उसी प्रकार आवश्यक एवं उपयोगी है जिस प्रकार छल, जाति और निग्रहस्थानोंका। अन्य दोपोंकी अपेक्षा हेत्वाभास बलवान् और प्रधान दोप है । अतः उनका वादीको पृथक् ज्ञान होना आवश्यक एवं अनिवार्य है । अतएव अक्षपादन कणादकी तरह हेत्वाभासोंका ही निम्पण किया है । भिन्नता इतनी ही है कि जहाँ कणादने तीन हेत्वाभास वणित किये हैं वहाँ अक्षपादने पांच कहे हैं। इसका कारण यह है कि कणाद बिम्पलिंगमे अनुमान मानते हैं और अक्षपाद पंचरूपलिंगसे । अतएव एक-एक रूपके अभावम कणादको तीन और अक्षपादको पांच हेत्वाभास इष्ट है। वे ये हैं-(१) सव्यभिचार, (२) विरुद्ध, (३) प्रकरणसम ( सत्प्रतिपक्ष ), (४) साध्यसम और ( ५ ) अतीतकाल ( कालात्ययापदिष्ट-बाधितविपय ) । वाचस्पति और जयन्तभट्टने भी एक-एक रूपके अभावसे होनेवाले पाँच हेत्वाभासोंका ही समर्थन एवं उपपादन किया है। जयन्तभट्टने तो स्पष्टतया हेतुदोषोंके कथनसे ही पक्षदोषों तथा दृष्टान्तदोषोंके भी १. असाध्यं च द्वधा सिद्धमनुपपद्यमानसाधनं च। तत्र साध्यनिर्देश इत्यनेन वचनेनोभयं निवय॑ते सिद्धमनुपपद्यमानसाधनं च । -न्यायवा० ।।१।३३, पृ० ११० । २. न्या. सू०१४ । ३. न्यायवा० ता० १४२.४, पृ० ३३० । ४. न्यायक० पृ० १४ । न्यायमं० पृ० १३७ । ३२
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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