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________________ इतर परम्परामों में अनुमानामास-विचार : २५१ संगत प्रतीत होता है। यथार्थमें परार्थानुमानके जितने प्रयोजक तत्त्व स्वीकृत एवं प्रतिपादित किये जाएं, उतने ही उसके अवरोधक दोषोंकी सम्भावना होनेसे उन सभीका भी प्रतिपादन करना उचित है । यह युक्त नहीं कि साधनावयवोंको तो अमुक संख्यामें मान कर उनका प्रत्येकका विवेचन किया जाए और उनके दोषोंकी संख्या उतनी ही सम्भाव्य होने पर उनका प्रतिपादन न किया जाए। जैसा कि हम अक्षपादके प्रतिपादन में इस न्यनताको देख चुके हैं । हेत्वाभासोंके द्वारा ही पक्षाभासादि दोषोंके संग्रहको जयन्तभट्टको युक्ति बुद्धि को नहीं लगती। अन्यथा अनुमानका प्रधान अंग हेतु होनेसे उसीका निरूपण किया जाना चाहिए और अन्य अवयवोंका उसके द्वारा ही संग्रह कर लेना चाहिए । यद्यपि इस असं. गतिका परिहार करनेका प्रयास उन्होंने किया है पर उसमें उन्होंने कोई अकाटय एवं बलवान् युक्ति प्रस्तुत नहीं की। इस दृष्टि से न्यायप्रवेशकारका तीनों दोषोंका प्रतिपादन हम युक्ति और संगतिके निकट पाते हैं। जो सिद्ध करनेके लिए इष्ट होनेपर भी प्रत्यक्षादिविरुद्ध हो वह पक्षाभास' है। न्यायप्रवेशकारने इसके नौ भेद प्रतिपादित किये हैं-(१) प्रत्यक्षविरुद्ध, (२) अनुमानविरुद्ध , ( ३ ) आगमविरुद्ध, (४) लोकविरुद्ध, (५) स्ववचनविरुद्ध, ( ६ ) अप्रसिद्ध विशेषण, (७) अप्रसिद्धविशेष्य, (८) अप्रसिद्धोभय और (९) प्रसिद्धसम्बन्ध । इन्हींको प्रतिज्ञादोष ( प्रतिज्ञाभास ) कहते हैं। न्यायप्रवेशमे इनका उदाहरणों द्वारा वर्णन किया है। उल्लेखनीय है कि धर्मकी तिने ' प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत, प्रतीतिनिराकृत और स्ववचननिराकृत ये चार ही पक्षाभास स्वीकार किये हैं । __हेत्वाभास तीन है"-(१) असिद्ध, (२) अनेकान्तिक और ( ३ ) विरुद्ध । यतः न्यायप्रवेशकारने कणादकी तरह हेतुको त्रिरूप माना है, अतः उन तीन रूपोंके अभावमें उसके तीन दोषोंका प्रतिपादन भी उन्होंन कणादकी तरह किया है । एक-एक रूप ( पक्षधर्मत्व, सपक्ष सत्त्व और विपक्षासत्त्व के अभाव क्रमशः असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन ही हेतु-दोष सम्भव है । असिद्ध चार प्रकारका है-(१) उभयासिद्ध, ( २ ) अन्यतरासिद्ध, ( ३ ) सन्दिग्धासिद्ध और ( ४ ) आश्रयासिद्ध । प्रशस्तपादने भी ये चार भंद स्वीकार किये है, जैसा १,२-न्याय पृ० २-३ । ३. वही, पृ० ३। ४. न्या० वि० पृ० ६४-६६ । ५. न्या. प्र.१०३। ६. वही, पृ०३। ७. प्रश० मा० पृ० ११६-११७।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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