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________________ भनुमान-समीक्षा : ९१ प्रत्यक्षोऽर्थोऽनुमीयते' ।' -लिंगलिंगीसम्बन्धस्मृति और लिंगदर्शन द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थका अनुमान किया जाता है । इस प्रकार वात्स्यायनका अभिप्राय 'अनु' शब्दसे 'सम्बन्धस्मरण और लिंगदर्शनके पश्चात् अर्थको ग्रहण करनेका प्रतीत होता है। न्यायवार्तिककारका मत है कि 'यस्माल्लिगपरामर्शादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्मालिंलगपरामर्शो न्याय्य इति,२ -यत: लिङ्गपरामर्शके अनन्तर शेषार्थ ( अनुमेयार्थ का ज्ञान होता है, अतः लिंगपरामर्शको अनुमान मानना न्याययुक्त है। इस तरह उद्योतकरके मतानुसार लिंगपरामर्श वह ज्ञान है जिसके पश्चात् अनुमिति उत्पन्न होती है। न्यायावतारके संस्कृतटीकाकार सिद्धर्षि गणि वात्स्यायनका अनुसरण करते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि लिङ्गदर्शन आदि व्याप्तिनिश्चयसे व्यवहित हैं। अतः व्याप्तिज्ञान ही अनुमानसे अव्यवहित पूर्ववर्ती है । अनुमानशब्दकी निरुक्तिके बाद अब देखना है कि उपलब्ध जैन तर्क ग्रन्थों में अनुमानको क्या परिभाषा की गयी है ? स्वामी समन्तभद्रने आतमीमांसामें 'अनु. मेयत्व'४ हेतुसे सर्वज्ञकी सिद्धि की है । आगे अनेक स्थलोंपर 'स्वरूपादिचतुथ्यात्'", 'विशेषणत्वात्'६ आदि अनेक हेतुओंको दिया है और उनसे अनेकांतात्मक वस्तुकी व्यवस्था तथा स्याद्वादकी स्थापना की है। उनके इन 'अनुमेयत्व' आदि हेतुओंके प्रयोगसे अवगत होता है कि उनके कालमें स्याद्वादन्याय । जैन न्यायमें ) विवादग्रस्त एवं अप्रत्यक्ष पदार्थोकी सिद्धि अनुमानसे की जाने लगी थी। जिन उपादानोंसे अनुमान निष्पन्न एवं सम्पूर्ण होता है उन उपादानोंका उल्लेख भी उनके द्वारा इसमें बहुलतया हुआ है। उदाहरणार्थ हेतु, साध्य, प्रतिज्ञा, सधर्मा, अविनाभाव, सपक्ष, साधर्म्य, वैधर्म्य, दृष्टान्त जैसे अनुमानोपकरणोंका निर्देश इसमें किया गया है । पर परिभाषाग्रन्थ न होनेसे उनकी परिभाषाएँ उपलब्ध नहीं हैं। यही कारण है कि अनुमानकी परिभाषा इसमें दृष्टिगत नहीं होती। एक स्थलपर हेतु (नय) का लक्षण अवश्य निबद्ध है, जिसमें अन्यथानुपपत्तिविशिष्ट विलक्षण १. वही, ११।५। २. न्यायवा० १।१५, पृष्ठ ४५ । ३. अनुवादक-विजयमूर्ति, न्यायाव० का० ५, पृष्ठ ४९ । ४. आप्तमी० का० ५। ५. वहो, का० १५ । ६. वही, का० १७, १८ । ७. वही० का० ११३ । ८. वहो, का० १६, १७, १८, १९, २६, २७, ७८, ८०, १०६ आदि । ६. सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वादप्रविभक्तार्थ-विशेष-व्यंजको नयः ॥ -आ० मो० का० १०६ ।
SR No.010313
Book TitleJain Tark Shastra me Anuman Vichar Aetihasik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1969
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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