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________________ जैन स्वाध्यायमाला राया सह देवीए माहणो य पुरोहित्रो । माहणी दारगा चेव, सब्वे ते परिनिव्वुडे | ५३ | १२१ ॥ उयारिज्ज चोदहम अज्भवणं समत्त ॥ १४ ॥ ||सभिक्खू पंचदह अज्झयणं ॥ १५ ॥ मोणं चरिस्सामि समिच्च धम्मं, सहिए उज्जुकडे नियाणछिन् । संथवं जहिज्ज अकामकामे, अन्नायएसी परिव्वए स भिक्खू |१| राम्रोवरयं चरेज्ज लाढे, विरए वेयवियायर क्खिए । पन्ने श्रभिभूय सव्वदसी, जे कम्हि वि न मुच्छिए स भिक्खू |२| अक्कोसवह विइत्तु धीरे, मुणी चरे लाढे निच्चमायगुत्ते । श्रव्वग्गमणे असंपहिट्ठे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू | ३ | पंत सयणासण भइत्ता, सीउन्हं विविहं च दसमसगं । श्रव्वग्गमणे असंपहिट्ठे, जे कसिणं अहियासए स भिक्खू |४| नो सक्कइमिच्छई न पूयं, नोऽवि य वंदणगं कुश्रो पससं । से संजए सुव्वए तवस्सी, सहिए आायगवेसए स भिक्खू |५| जेण पुण जहाइ जीवयं, मोहं वा कसिणं नियच्छई । नरनारि पजहे सया तवस्सी, न य कोऊहलं उवेइस भिक्खू | ६ | छिन्नं सरं भोममंतलिक्खं, सुमिणं लक्खण- दण्ड- वत्थु - विज्जं । अंगवियार सरस्स विजयं, जे विज्जाहिं न जीवइ स भिक्खू ॥७॥ मंतं मूलं विविह वेज्जचित, वमण - विरेयण- घुमणेत्त - सिणाणं । श्राउरे सरणं तिगिच्छिय च तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू खत्तियगण उग्गरायपुत्ता, माहणभोइय विविहा य सिप्पिणो । नो तेसिं वयइ सिलोगपूयं तं परिन्नाय परिव्वए स भिक्खू 181 ,
SR No.010312
Book TitleJain Swadhyaya Mala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh Sailana MP
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1965
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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