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________________ जैन सुबोध गुटका । (३१५) चन में फिरे, श्रीरामचन्द्रजी ढूंढन को । जब दिन पल्टे तब वही सीता, छोड़ी जंगल में ला कर के ॥ ३ ॥ वीर विक्रमादित्य हुआ, देखो कलियुग में सत् धारी । दिन पल्टे जब रहे घांची, घर वह सूखी- रुखी खाकर के ॥ ४ ॥ राज महल में रहते थे, आनन्द से हरिचन्द प्रणधारी । वहीं काशी में फिर जाय विके, आराम - ऐश बिसरा करके ||५|| साल सित्यासी नगर बीच, कहे चौथमल श्रोता सुनलो । मत फूलो सम्पत देख देख, रहो राग द्वेप विसरा करके || ६ || Britis :: नम्बर ४२७ ( तर्ज- मेरे स्वामी ) जो हो मोक्ष के बीच में जाना तुझे । होगा दुनियां से प्रेम हटाना तुझे || ढेर || सत्य-शील दया- दान को, दिल में बसाना चाहिये । काम क्रोध मद लोभ को, एक दम भगाना चाहिये || नहीं विषयों के बीच ललचाना तुझे ॥ १ ॥ बैठ के एकान्त में, तू ढूंढ अपने आप को । श्रभ्यास से मनं रोक के, हरदम जपो प्रभु-जाप को ॥ घट के पट में ही दर्शन पाना तुझे || २ || ढेर कर्मों का जला अनि लगा के ज्ञान की । खटपट सकल मिटजायगा, जब लो लगेगी ध्यान की । नहीं आवागमन में फिर आना तुझे ॥ ३ ॥ निज-स्वरूप में तू रमण कर अक्षय सुख तू पायगा ।
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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