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________________ (३१४) जैन सुवोध गुटका। में वक्त गमाओ मती ।। टेर ।। है फना यह दुनिया सारी, साथ में नहीं आयगा । छोड़कर सारा पसारा, कूचं नु कर जायगा। इसमें फँस के उसे विसराबो मती॥ १ ॥ प्राण प्यारी द्वार तक, रोती खड़ी रह जायगा ! मित्र-दल तेरा तुझे, शमसान तक पहुंचायगा ॥ करके अनीति द्रव्य कमाओ सती ॥ २ ॥ पर लोक में ले जायगा, पुण्य-पाप गठड़ी बांधकर, लेंगे वदला तुझसे जो, मारे थे बाण से सांध कर ॥ ऐसी जान किसी को सताओं मती ॥ ३ ॥ एक धर्म ही सच्चा सखा, आराम इससे पायगा । कहे चौथमल बिन धर्म के, आगे तू वहां पछतायगा | मिथ्या माया के बीच लोभाओ मती ॥ ४ ॥ . नम्बर ४२६ : [ तर्ज-कसली वाले की] यह सदा एक-सी रहे, नहीं, तुम देखो ज्ञान लगा • करके । करलो जो वरना हो तुमको, यह क्वत मिला है श्राकरके ॥ टेर । तीन खंड का राज लिया, कर दमन आप सब ही जन को । देखो जंगल में प्राण तजे, फिर तीर योग से जाकर के ॥ १ ॥ मगध देश का मालिक था यह श्रेणिक नामा भूप जंबर ।. एक दिन हाथों से मरे वही, देखो जहर को खाकर के ।। २ ।। सीता के लिये वन
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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