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________________ (१३२) जैन सुबोध गुटका। . . . : । २०३ मांस परिहार . [तर्ज-तीलंगी दादरा] .. मांस अभक्ष नर का न खानारे ॥ टेर.॥ जाती है दयाः दूर इस मांस आहार से । होता है महा पातकी देखो विचार से । खास नके में उसका ठिकानारे ॥ मांस० ॥१॥ गोश्त । की जो उत्पत्ति कहो कैसे आब से | देख खुश होगये खाने खराब से । खाली दिल को सख्त बनानारे ॥२॥ डाक्टरों के लेख पे दिल में करो तो गौर । कितनी बढ़ी बीमारियां समझो तो जरा और । खाजलं जाजरु समानारे ॥ ३ ॥ एक मांसखोरे पशु एक घास करे आहारं । दोनों की सिंपर्ने देखलो नर किस में है शुमार । कहे चौथमल त्यागे सयानारे ॥ ४॥ ... .... . , . २०४ लोकोक्तिः .. .. २०४ लोकोक्ति. . . .. . [तर्ज-नागजी की] हंसजी थे मति जाओ छोड़नेरे या सुन्दर काया आपकी हो हंसजी ॥१॥ हंसजी तू भवरों में फूलरे कोई संयोगे आला लागा हो हंसजी ।। २ ।। हंसजी जग मग थारी जोतरे कोई काया महल में खुल रही हो, हंसजी ॥३॥ सुन्दरी थारा मोह में लागरे कांई: सुकृत करणी नहीं करी हो सुन्दर ॥ ४ ॥ हंसजी इण में म्हारों काई बांकरे कोई में हाजिर थारे खड़ी हो हंसजी ॥ ५ ॥ सुन्दरी सज तन पे श्रृंगाररे कोई इतरं' फुलेल लगावीया हो. सुन्दरी ॥ ६ ॥ बैठी बग्घी मांयरे कोई, बागों में
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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