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________________ ६-तत्वार्थ २७६ * ই-লমগ্রিকা की ओर न झुकना व्यवहार है, और वस्तु के नित्य टंकोत्कीर्ण स्वभाव के अतिरिक्त सभी असत् पदार्थों की इच्छा न करना निश्चय है। ३७. उपगृहन या उपवृहेण गुण किसको कहते हैं ? दूसरे के दोष छिपाना व गुण प्रगट करना, इसके विपरीत अपने गुण छिपाना व दोष प्रगट करना उपगृहन गुण या व्यवहार है । अपने आन्तरिक स्वभाव के प्रति अधिकाधिक बहुमान जागृत करके उसमें अधिकाधिक निष्ठ होते जाना उपवृहेण या निश्चय है। ३८. स्थितिकरण गुण किसको कहते हैं ? किसी कारणवश कोई व्यक्ति वीतराग धर्म से गिरता हो तो तन मन धन से उसकी सहायता करके उसे धर्म पर टिकाना व्यवहार है; और कर्मोदयवश कुछ दोष लग जाने पर स्वयं को पुनः प्रायश्चित्तादि लेकर सन्मार्ग में टिकाना निश्चय है। अथवा उपयोग को पुनः पुनः बाहर से लौटाकर अन्तस्तत्व में स्थित करना निश्चय है। ३६. वात्सल्य गुण किसको कहते हैं ? अन्य सम्यग्दृष्टि या धर्मात्मा व्यक्ति को देखकर अन्दर से हृदय खिल उठना व्यवहार है और निज शुद्धस्वरूप का साक्षात दर्शन होने पर अपने को कृतकृत्य मानना निश्चय है। ४०. प्रभावना गुण किसको कहते हैं ? जिस किसी प्रकार भी बीतराग धर्म का प्रचार व प्रसार करना व्यवहार है; और निज शुद्धात्मानुभूति जनित आनन्द से सदा स्वयं प्रभावित रहते हुए अन्य किसी भी पदार्थ के प्रभाव में न आना निश्चय है। . ४१. 'मैं तो धर्म शंका नहीं करूंगा अथवा पुण्य की आकांक्षा नहीं करूंगा' इस प्रकार कृत्रिम गुणों को पालने वाला सम्यग्दृष्टि है या मिथ्यादृष्टि ? वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि भले ही बाहर में प्रगट न करे
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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