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________________ ६-तत्वार्य २८० २-रत्नत्रयाधिकार परन्तु उसके अन्तरंग में तो शंका व आकांक्षा है ही। ४२. सम्यग्दृष्टि की कुछ अन्य भी पिछान है क्या ? प्रशम, संवेग, अनुकम्पा व आस्तिस्य ये चार गुण भी सम्यग दृष्टि में सहज होते हैं। ४३. प्रशम आदि गुण कैसे होते हैं ? कषायों की अति मन्दता प्रशम गुण है; संसार व भोगों से डर लगना संवेग अथवा भोगों से विरक्त रहना निर्वेद है, दुखियों को देखकर स्वयं हृदय आद्रित हो जाना अनुकम्पा है तथा निज अन्तस्तत्व के अस्तित्व का निश्चय रहना आस्तिक्य है। ४४. कृत्रिम रूप से इन आठ या चार गुणों को प्रगट करने के लिये जो मियों की सेवा अथवा प्रभावना आदि करता है, वह क्या है ? वह मिथ्यादष्टि है, क्योंकि उसे कृत्रिमता करनी पड़ती है। ४५. ये सभी गुण सम्यग्दृष्टि में किस प्रकार होते हैं ? उसमें ये गुण स्वाभाविक होते हैं, कृत्रिम नहीं । सम्यग्दृष्टि का ऐसा स्वभाव सहज ही होता है और इसलिये बिना किये ही उसमें ये सब लक्षण प्रगट रहते हैं। ४६. क्या ये गुण मिथ्यादृष्टि में नहीं होते? मिथ्यादृष्टि में भी कदाचित इनमें से एक दो अथवा सारे ही होने सम्भव हैं, परन्तु प्रायः करके अविकल रूप से सम्यग्दृष्टि में ही पाये जाते हैं। ४७ तब सम्यग्दृष्टि व सम्यग्दृष्टि की क्या विशेषता ? ये सब गुण व्यवहार लक्षण हैं. इसलिये इनके द्वारा सम्यक्त्व की ठीक पिछान नहीं होती। उसकी यथार्थ पिछान तो आनन्दानुभूति है और स्वयं उसे ही होती हैं परीक्षक को नहीं। अतः परीक्षक के लिये तो इन व्यवहार लक्षणों पर से अनुमान लगाना ही एक मात्र उपाय है।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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