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________________ ६-तत्वार्थ २७८ २-रत्नत्रयाधिकार ३०. इसे सम्यग्श्रद्धा की बजाये सम्यग्दर्शन क्यों कहा? सम्यग्दर्शन का विषय आत्मा का सामान्य प्रतिभास है, यह बताने के लिये 'दर्शन' शब्द का प्रयोग ही युक्त है। श्रद्धा कहने से अतिव्याप्ति होने का भय है, क्योंकि लोक में सभी व्यक्तियों को कोई न कोई श्रद्धा तो है ही। ३१. सम्यग्दर्शन की पहचान कैसे हो? सम्यग्दर्शन के आठ अंगों पर से सम्यग्दर्शन की पहचान होती है। ३२. सम्यग्दर्शन के आठ अंग कौन से हैं ? निःशंकित, निष्कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन या उपवृहेण, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना । ३३. निःशंकित अंग किसको कहते हैं ? तत्वों में संशय या शंका न करना, तथा अपने अखण्ड ज्ञायक स्वरूप पर निश्चल श्रद्धा रखते हुए जन्म मरण रोग आदि के भय न करना । उनमें पहिला व्यवहार निःशकित गुण है और दूसरा निश्चय। ३४. निष्कांक्षित गुण किसको कहते हैं ? इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी भोगों की आकांक्षा न करना व्यवहार है; तथा निज स्वरूप के अतिरिक्त सब कुछ असत् दीखना निश्चय है। ३५. निविचिकित्सा गुण किसको कहते हैं ? धर्मी जीवों व साधुओं का शरीर प्रारब्धवश अत्यन्त ग्लानि युक्त हो जाने पर भी उनसे घृणा न करना बल्कि उनकी सेवा को सदा उद्यत रहना व्यवहार है; और वस्तु स्वरूप पर लक्ष्य टिकाने के कारण किसी भी पदार्थ से ग्लानि न करना निश्चय है। ३६. अमढ़ दृष्टि किसको कहते हैं ? लौकिक चमत्कारों को देखकर, अथवा भय लज्जा गौरव या अन्य किसी कारण से वीतराग मार्ग के अतिरिक्त अन्य मार्ग
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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