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________________ २-म्प गुण पर्याय १६६ ६ -अन्य विषयाधिकार केवली समुद्धात् कहते हैं और तेरहवें गुण स्थान के अन्त में किसी किसी अहंत देव को ही होता है। २५. अर्हन्त भगवान केवली समुद्धात क्यों करते हैं ? कदाचित उनकी आयु की स्थिति अन्य तीन अघातिय कर्मों की स्थिति की अपेक्षा कुछ हीन या अधिक रह जाये तो उन सब कर्मों की स्थिति को समान करने के लिये करते हैं। २६. केवली समुद्धात का क्या क्रम है और इसमें कितना समय लगता है ? केवली समुद्धात् के अन्तर्गत चार विभाग हैं—दण्ड, कपाट, प्रतर व लोकपूर्ण। (क) पहिले समय में उनके प्रदेश शरीर प्रमाण मोटाई में ही दण्डे की भांति ऊपर नीचे लोक की सीमाओं पर्यन्त फैल जाते हैं । इसे दण्ड समुद्धात् कहते हैं। (ख) द्वितीय समय में दण्डाकार वे प्रदेश उतने ही मोटे रहकर दांई बांई दिशा में कपाट खुलने की भांति लोक की सीमाओं पर्यन्त फैल जाते हैं। इसे कपाट समुद्धात कहते हैं। (ग) तृतीय समय में कपाटाकार वे प्रदेश उतने के उतने चौड़े रहते हुए आगे पीछे वाली मोटाई की दिशाओं में लोक की सीमाओं पर्यंत फैल जाते है। इसे प्रतर समुद्धात कहते हैं। (घ) चतुर्थ समय में वे प्रदेश लोक के शेष बचे हुए नीचे ऊपर के कोनों में भी जू केतू चौड़े व मोटे रहते हुए फैलकर समस्त लोक को पूर्ण कर देते हैं। इसे लोकपूर्ण समु दात कहते हैं। (च) पंचम समय में लोकपूर्ण समुद्घात संकुचित होकर प्रतराकार बन जाता है। छटे समय में प्रतराकार भी सिमट कर कपाटाकार हो जाता है । सप्तम समय में वह
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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