SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ २-द्रव्य गुण पर्याय ४-जीव गुणाधिकार १४६. दर्शन के चारों लक्षणों का समन्वय करो? (देखो ऊपर प्रश्न नं १४६-१४८) १५०. दर्शन व अनुभव में क्या अन्तर है ? चित्प्रकाश की अन्तर्प्रतीति की अपेक्षा वह दर्शन है और तज्जनित निर्विकल्प आनन्द की प्रतीति युक्त होने से वहीं आत्मानुभव या अनुभूति है। क्योंकि अनुभव का तन्मयता वाला लक्षण यहां पूर्णतया घटित होता है। १५१. दर्शन तो सर्व जीवों को होता है तो क्या वे सब आत्मा नुभवी हैं ? नहीं, उनको दर्शन का भी स्वरूप यद्यपि होता तो ऐसा ही है, पर उसकी विशेष प्रतीति न होने से वहां आनन्दानुभूति नहीं हो पाती। (१५२) दर्शन कब होता है ? ज्ञान से पहिले दर्शन होता है । बिना दर्शन के अल्पज्ञ जनों को ज्ञान नहीं होता। परन्तु सर्वज्ञदेव के ज्ञान व दर्शन साथ साथ होते हैं। १५३. छप्रस्थों को मान से पहले दर्शन कैसा होता है ? एक इन्द्रिय से जानते जानते जब व्यक्ति दूसरी इन्द्रिय से जानने के सम्मुख होता है, तब एक क्षण के लिये पहली इन्द्रिय का व्यापार तो रुक जाता है और अभी दूसरी इन्द्रिय का व्यापार प्रारम्भ नहीं हुआ होता। इस बीच के अन्तराल में उपयोग की जो क्षणिक अवस्था रहती है, वही छद्मस्थों के ज्ञान से पहले होने वाला दर्शनोपयोग है। किसी भी ज्ञेय का ग्रहण न होने से वह उस समय सामान्य प्रतिभासमात्र ही होता है, परन्तु वह क्षण इतना सूक्ष्म है कि साधारण बुद्धि की पकड़ में नहीं आता। इसी से वहां निर्विकल्पता की अनुभूति नहीं होती।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy