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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। रवि शशि:मंडल मधुर, मीन जुग पावनी : पावन कनक घटझुगम पूरण कमलकलित. सरोवरो! : कल्लोलमालाकलित. सागरः सिंहमीठ मनोहरो: . रमणीक अमरविमान मणिपती, भवन भुवि छविछाज़ए । रुचि रतनराशि दिपंत दहन सु, तेनपुंन विराजए.... . ये सखि सोलह स्वमें, सुती सयनमें । देखे माय :मनोहर, पच्छिम-रयनमें । उठि प्रमात पिय पूछियो, अवधिःप्रकासियो । त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहिं भासियो । भासियो फल तिहिं चिंति.दपति, परम आनंदित भए । छहमासपरि नवमास पनि तह, स्यन दिन सुखसूं गए । गर्भावतार महंत महिमा सुनत सब सुख पावहीं। जन 'रूपचंद्र' सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं ॥१॥ श्री जन्म कल्याणक. मतिश्रुतअवधिविराजित, निन जब जनमियो। तिहलोक भयो छोभित, सुरगण भरभियो । कल्पवासिघर घंट, अनाहद वज्जियो ।। जोतिषधर हरिनाद, सहज गल गजियो । . गन्नियो सहनहिं संख भावन,-भवन सक्द सुहावने । • व्यंतरनिलय पटु'पदहि वज्जिय कहत महिमा क्यों बनें ॥ . कंपित सुरासन अवधिवल तव जनम जिनको मानियो । धनराज तब गरान माया-मपी निरमय आनियो।। १ ।।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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