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________________ AIRAAD ३५६] जैनसिद्धांतसंग्रह। शुभफूलासमकाश परिमल, मुगुरुपापनि परत हों। निरवार मार उपाधि स्वामी, शीक दिढ़ उर परत हो ॥मव०॥४॥ ॐ ह्रीं नाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं । पकवान मिष्ट सलोन सुंदर, मुगुरु पार्यन प्रीतिसौं । र क्षुषारोग विनाश स्वामी, सुधिर कीजे रीतिसौं ।मन० ॥५॥ ॐ ही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य दीपक उदोत सनोत नगमग, मुगुरुपद पनों सदा। तमनाश ज्ञानठमात स्वामी, मोहि मोह न हो कदा भव ॥९॥ ॐ ही भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्यों मोहान्धकारविनाशनाय दी नि.॥ बहु मगर जादि सुगन्ध खेळ सुगुण पद पद्महि खरे । दुख पुन्न काट मनाय स्वामी गुण अछय चित्त घरे भव०॥७॥ ॐ ह्रीं भाचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनायं धूपं नि०॥ भर थार पर बदाम बहुविधि, मुगुरुकम आगें घरों। मंगळ महांफळ करो स्वामी, नोर कर विनती करों ॥भव || ॐ हीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुम्यो मोक्षफळप्राप्तये फळं निक मल गंध अक्षत फूल नेवन, दीप धूप फलावली। 'धानत' मुगुरुपद देहु स्वामी, हमर्हि तार उतावली ॥भव०॥९॥ ॐ हीं आचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्योऽनयपदमाप्तये.मर्थ्य नि.॥९॥ अथ जयमाला। . दोहा-कनककामिनी विषयवश, दीसै सब संसार । त्यागी वैरागी महां, साधु मुगुनमण्डार ।। १ ।।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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