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________________ २००] जैनसिद्धांतसंग्रह। ॐ ह्रीं देवंशावगुरुभ्यो अंटकर्मविधांसनाय धूपं ॥ ७॥ लोचन सुरसना प्राण उर. उत्साहके करतार हैं। मोपै न उपमा जाय वरणी, सकलकलगुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थ पूरन, परम अम्रतरस सबूं । महंतश्रुतसिद्धांत गुरु निग्रंथ नितपूजा रचूं ॥ .. दोहा-ने प्रधान फल फलविणे, पंचकरण-रसलीन । जासों पूनों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ८॥ ॐ ह्रीं देवशाकगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं ॥ ८॥ जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूं। वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमक पातक हरूं॥ इहमादि अर्व चढ़ाय नित भवि, करत शिवपंकति मर्छ । अहंत श्रुत सिद्धांत गुरु, निग्रंथ नितपूजा रचूं ॥ ॥९॥ दोहा-वसुविधि अर्घ संने यके, अति उछाह मन कीन । जासों पूनों परम पइ. देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ९॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनपदप्राप्तये अर्घ ॥ ९ ॥ ___अथ जयमाला। दोहा-देवशास्त्रगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरनी. अल्प मुगुग विस्तार ॥ १ ॥ पडि छन्द । चउकर्मकि त्रेसठ प्रकृति नाशि। जीवे अष्टादशदोपराशि ।। ने परम सुगुण हैं अनंत धीर । कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥२॥ शुम समवसरगशीमा अपार । शत इंद्र नमत कर शीस धार । देवाधिदेव अहंत देव । वंदो मनवचतनकरि सु सेव ॥शा
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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