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________________ NA जैनसिद्धतिसंग्रह। । १९९ लहि कुन्दकमलादिक पहुप. भंव भव कुवेदनसों वचूं । अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूना रचूं ॥१॥ दोहा-विविधमांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन । तासों पूनों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं ॥२॥ भति सबल मद कंद जाको, क्षुषा उरग अमान है। दुस्सह भयानक तासु नाशनको सु गरुड़समान है । उत्तम छहारसयुक्त नित नैवेद्य करि घृतमें पचूं। अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिम्रन्थ नितपूजा रचूं ॥ ५ ॥ ॐ हीं देवशालगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशाय चरुं ॥५॥ जे त्रिजग उद्यम नाश कीनें मोहतिमिर महाबली । तिहि कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशनोति प्रभावली ।। इह भांति दीप प्रजाल कंचनके सुभाजनमें खचूं । . . . अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिन्थ नितपूना रचू ॥ ६ ॥ 'दोहा-स्वपरप्रकाशक जोति अति दीपक तमकरि हीन । जासों पूनों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ६॥ . ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीपं ॥६॥ जो कर्म-ईंधन दहन अनिसमूहसम उहत लसै । वर धूप तासु सुगन्धि ताकरि सकलपरिमलता हसै ॥ इह माँति धूप चढ़ाय नित, भवज्वलनमाहिं नहिं पचूं । अहंतश्रुतसिद्धांतगुरुनिग्रंथ नितपूना रचूं ॥ ७॥ दोहा-अमिमाहिं परिमल दहन, चंदनादि गुणलीन । . नासों पूनों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ७ ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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